________________
(376) :
नंदनवन
विविध प्रकार की हिंसा ज्ञान, कषाय, मनोविनोद, शोक, धर्म, अर्थ, काम, आजीविका तथा स्वेच्छा या अनिच्छा से की जाती है। आचारांग " में भी हिंसा के विषय में कहा गया है कि मनुष्यः 1. अपने वर्तमान जीवन के लिये
2. प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिये,
3. जन्म, मरण और मोचन के लिये,
4. दुःख - प्रतिकार के लिये हिंसा करता है ।
उपरोक्त रूप इन्हीं के विस्तार मात्र हैं। प्रश्नव्याकरण में आचार्य ने 54 हिंसक जातियों का भी उल्लेख किया है जिनमें प्रायः सभी तत्कालीन अनार्य - देशी लोग हैं। ये संज्ञी, असंज्ञी, पर्याप्त, अपर्याप्त सभी जीवों की हिंसा करते हैं। सभी हिंसक जीव नरक और तिर्यच योनि में कुमानुष अवस्था में भटकते हुए अनन्त दुःख भोगते रहते हैं । इस ग्रंथ में विभिन्न गतियों में होने वाले विभिन्न दुःखों का भी वर्णन किया गया है। इसमें प्रतिष्ठा एवं पंचकल्याणकों का नाम नहीं है । सम्भवतः इस ग्रंथ की रचना के समय ये धार्मिक कार्य प्रायः नहीं होते होंगे। पर देवालय, विहार- निर्माण आदि में विशिष्ट कोटि के जीवों की हिंसा का संकेत तो वहां है ही । हितकारी और अहितकारी हिंसा
स्वामी सत्यभक्त ने इस सम्बन्ध में अनेक नये विचार दिये हैं और 'कल्याणवाद' की धारणा तथा अनेकान्त - दृष्टि के आधार पर बताया है कि हिंसा के प्रमुखतः तीन भेद और पन्द्रह उपभेद हैं :
1. पुण्यघात : ( 1 ) न्याय -रक्षक घात (2) वर्धक - घात ( सुधारने के लिये कष्ट देना) तथा (3) स्वयं कष्ट देना (दूसरों को सुधारने के लिये ) 2. निर्दोष घात: सात प्रकार (1) सहज ( 2 ) भाग्यज ( 3 ) भ्रमण (4) निर्वाहार्थक (आजीविकादि) (5) स्वरक्षक ( आत्मरक्षा, विरोधी हिंसा) ( 6 ) याचक ( रोगी - सेवा, रक्तदान आदि) एवं ( 7 ) विनिमयज । पापघात: पांच प्रकार : (1) प्रमादज (2) अविवेकज अंधविश्वास (पशु बलि, आदि) (3) बाधक ( 4 ) तक्षक (अभियानवश दूसरों को सताना) एवं (5) भक्षक ( मासांहार आदि),
3.
—
इन भेदों में केवल पापार्जनी अर्थात् प्रायः एक-तिहाई हिंसा ही त्याज्य है, अन्य दो कोटि की हिंसायें, जीवनोपयोगी होने के कारण अनुमत मानी गई हैं। इनमें जैनशास्त्र वर्णित प्रायः चारों कोटि की हिंसायें समाहित हो जाती हैं। यद्यपि यहां संकल्पी हिंसा का नामतः उल्लेख नहीं है, संकल्पनीय अनेक क्रियाकलापों का उल्लेख तो है ही ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org