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हिंसा का समुद्र : अहिंसा की नाव : (399)
अनिश्चय की दिशा में निमन्त्रकों को मानसिक संताप भी होता होगा। हम यह मान लें कि निमन्त्रक श्रावकों की टोली का कम-से-कम एक वाहन तीन-बार निमन्त्रण हेतु जाता है और औसतन 50 कि.मी. की यात्रा करता है। इस वाहन द्वारा की गई हिंसा श्रावकों की हिंसा मानी जायेगी। चॅकि वाहन एक ही माना गया है, अत: उसके द्वारा हुई हिंसा एक व्यक्ति के समकक्ष मानी जायेगी। फलतः 10 स्थानों के निमन्त्रकों की तीन-तीन बार 50 किमी. की यात्रा में निम्न हिंसा सम्भावित है :
9.179 X 1012 x 50 X 30~1.8 x 10 यूनिट इस प्रकार, विहार-जन्य कुल हिंसा : = स्वयंकृत हिंसा + विहित हिंसा + आमन्त्रण-जन्य हिंसा = 3.5 x 10'+(1.462 X 1014 + 1.8 x 101%) = 6.76 x 10" यूनिट यद्यपि विहित हिंसा साधुकृत नहीं होती, पर वह गृहस्थों के लिये साधु हेतु विहित है। अतः इसे साधुमूलक तो माना ही जाना चाहिये। धार्मिक क्रियाओं/उत्सवों के लिये अनुमोदित हिंसा
विभिन्न प्रकार के विधि-विधान एवं प्रतिष्ठायें धार्मिकवृत्ति को रसमय बनाने, संरक्षित रखने, प्रोत्साहित करने तथा संवर्धन करने के महत्त्वपूर्ण उपक्रम हैं। प्राचीनकाल में सामाजिक एवं राजकीय उत्सव अधिक मनाये जाते थे। इनका वर्णन अनेक प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। इनका आयोजन समाज या राजतन्त्र के राजा करते थे। धार्मिकता की जागरूकता के लिये समयानुसार धार्मिक विधि-विधानों की परम्परा भी चली। पाश्चात्य विद्वान तो यह मानते हैं कि विभिन्न उत्सव धर्म-संस्था के पूर्ववर्ती हैं। इन आयोजनों ने ही धर्म-संस्था को विकसित किया है एवं जीवित रखा है। प्रारम्भ में, धार्मिक विधि-विधानों में यति, भट्टारक और गृहस्थों का ही योगदान रहा है, पर अब विधानों में साधुजन का सान्निध्य एवं उनके माध्यम से मूर्ति प्रतिष्ठाओं में सूर्यमंत्र का अंकन एक अनिवार्य-सी परम्परा बन गई है। फलतः इन प्रतिष्ठादि आयोजनों के लिये साधुजनों का अनुमोदन आवश्यक होता है । प्रायः सभी धार्मिक क्रियाओं में विविध रूप में अनेक प्रकार की हिंसा होती है जिसका परिकलन सरल नहीं है। विशेषतः विधान, वेदी-प्रतिष्ठा, गजरथ तो इनसे अछूते नहीं हैं। इनमें सर्वाधिक हिंसन-पीड़न तो गजरथों में होता है जहां अनेक किलोमीटर भूमि का समतलीकरण, धार्मिक जनों के सहभाजन, सम्मिलित होने वाले लोगों की यात्रायें और उनसे सम्बन्धित व्यवस्थाओं में अनन्त नहीं, तो असंख्यात एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय कोटि तक के जीवों का पीडन होता है। उसका कुछ विवरण मुनि सरल सागर जी ने दिया है। यदि हम इनसे से किसी भी प्रक्रिया में विभिन्न कोटि के असंख्यात जीवों का पीडन माने (वस्तुतः यह संख्या अनन्त भी हो
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