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कर्मवाद का वैज्ञानिक पक्ष : (409)
7. कर्मों की स्थिति
जीव के साथ बन्धे हुए कर्मों की स्थिति (उदयकाल तक) तीन प्रकार की होती है जो कषाय की तरतमता पर निर्भर करती है : उत्तम, मध्यम, जघन्य। सामान्यतः कर्मस्थिति में आबाधाकाल भी समाहित होता है। फलतः,
कर्म स्थिति = आबाधाकला + वेदक स्थिति मध्यम स्थिति = [(उत्कृष्ट-जघन्य) स्थिति – 1 समय] कर्मग्रंथ और अन्य ग्रंथों में कर्मों और उनके उपभेदों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति दी गई है। 8. कर्म प्रदेशों की संख्या
यह बताया जा चुका है कि कर्म-प्रायोग्य कर्म परमाणु विश्व में सर्वत्र व्याप्त हैं। जब वे कर्म का रूप धारण करते हैं (जीव के साथ संयोग होने पर), तब उनका एक यूनिट एक प्रदेश कहलाता है। सभी कर्मों के प्रदेशों की संख्या अनन्तानन्त है। इनका संख्यात्मक मान सिद्ध राशि और अभव्य राशि के आधार पर बताया गया है : कर्म-प्रदेश संख्या = o x अभव्यों की संख्या
= 1/0x सिद्धों की संख्या
__अर्थात् 0 x अभव्यों की संख्या = 1/2 सिद्ध की संख्या
या, सिद्धों की संख्या = 0 अभव्यों की संख्या इस समीकरण की प्रामाणिकता विचारणीय है। फिर भी, यह तो स्पष्ट है कि अभव्यों की संख्या अत्यल्प हो गई है। 9. कर्मों का चित्रात्मक विवेचन ___ शास्त्रीय विवेचन की तुलना में, मरडिया ने अपनी पुस्तक में कर्म-प्रक्रिया को चित्रात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार, कर्मबद्ध संसारी जीव एक चुम्बक के समान है जिसके चारों ओर एक बल-क्षेत्र होता है। हमारी विभिन्न प्रवृत्तियों से वातावरण में व्याप्त कार्मन-परमाणु इस क्षेत्र में आकृष्ट होते हैं और कर्म-बन्ध की वर्तमान दशा में परिवर्तन करते हैं। तप आदि के द्वारा निर्जरित होने पर शुद्ध आत्मा और कर्म-कण पृथक-पृथक हो जाते हैं। इसका चित्रण चित्र- 1 में दिया गया है। 10. महेन्द्र मुनि और आचार्य महाप्रज्ञ के विचार
उपरोक्त वैज्ञानिक समीकरणों एवं व्याख्याओं के आधार पर महेन्द्र मुनि और आचार्य महाप्रज्ञ ने कहा है कि वैज्ञानिक अनुसंधानों से शास्त्रीय कर्मवाद के अनेक अव्याख्यात बिन्दु एवं रहस्य स्पष्ट हुए हैं। वैज्ञानिक यह
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