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नंदनवन
आहार के घटक या अन्तर्ग्रहण का जो भी स्वरूप हो, समग्रतः आहार तंत्र दो प्रकार का पाया जाता है : 1. शाकाहारी तन्त्र : स्वास्थ्य, नैतिकता, सामाजिक, अर्थिक, सौंदर्यबोध,
दीर्घजीविता, मनोविज्ञान की दृष्टि से उत्तम । 2. अ-शाकाहारी तन्त्र : उक्त दृष्टियों से किंचित् हीनतर विश्व के प्रायः सभी धर्मज्ञों ने शाकाहार को उत्तम आहार तन्त्र माना है और अब वैज्ञानिक भी भौतिक, रासायनिक, चयापचयी एवं मनोवैज्ञानिक आधारों पर यही तथ्य मानने लगे हैं। शाकाहार तन्त्र आहार की ऐसी सरल और सात्विक पद्धति है जिसमें भोज्य पदार्थों की प्राप्ति या तैयारी में किसी भी स्तर पर किसी के जीवन का समापन न हो और हिंसा का अधिकतम अल्पीकरण हो। 'जंतुमालाकुले लोके कथं भिक्षुरहिंसकः" के अनुसार, सूक्ष्म जीवाणुओं के सार्वत्रिक राज्य में ऐसी अहिंसक जीवन पद्धति कैसे सम्भव है? सर्वप्रथम तो, अन्न फाल, शाक आदि एकेंद्रिय जीवों के हिंसन में, उनके तन्त्रिका-तन्त्र के अल्पतम विकसित होने के कारण, असहाय हिंसन-पीड़ा होती है। दूसरे, इनमें पंचतत्त्वों की तुलना में जल तत्त्व ही प्रधान रहता है। तीसरे, प्रायः इनका अचित्तीकृत रूप ही खाद्य के काम आता है। चौथे, वनस्पतियों या जीवाणुओं का पुनष्चक्रण अल्पसमयी क्रिया है। पांचवें, यह ईर्यापथिकी अकषायिणी जीवनरक्षणी क्रिया है जिसमें अल्पतर कर्मबन्ध होता है। इसी लिये जैनों ने वनस्पति खाद्यों के उपयोग में अल्प और बहु हिंसा के आधार पर अपने भक्ष्य-अभक्ष्य विचार प्रस्तुत किये हैं। इन आधारों पर 'अहिंसा की परिभाषा हिंसा के पूर्ण-निरोध के बदले उसके अधिकतम अल्पीकरण के रूप में की जानी चाहिए। यह व्यावहारिक परिभाषा है, अन्यथा संसार में कोई भी जीवित नहीं रह सकता।
वर्तमान में शाकाहार के दो रूप हैं- शुद्ध शाकाहार और दुग्ध शाकाहार। अधिकांश लोग दुग्ध-शाकाहारी ही होते हैं। वे बनस्पतिज उत्पादों के अतिरिक्त, दूध और उसके उत्पादों को भी ग्रहण करते हैं। अंडज आहार शाकाहारी नहीं है, क्योंकि अंडा तो अनुत्पादी जीव है, उसमें कोलस्ट्रोल पाया जाता है एवं वह बनस्पतियों से उच्चतर कोटि के जीवों से ही प्राप्त होता है। शाकाहार पद्धति अहिंसक, बहु-रोग निरोधक, क्षारीय रक्तवर्धक सात्विक मनोभाव संवर्धक है। मधु जैन ने कासलीवाल अभि. ग्रंथ, 1998 में इस तन्त्र से सम्बन्धित अनेक प्रकार के आंकड़े दिये हैं। इसीलिए इस तन्त्र की लोकप्रियता सर्वत्र निरन्तर बढ़ रही है। यह तन्त्र एक जीवन शैली है जो मानव के शरीर-तन्त्र एवं पाचन-तन्त्र के अनुरूप है।
वर्तमान पर्यावरण प्रदूषण एवं उपभोक्ता संस्कृति के युग में मानव अधिभक्षणे, अभक्षण, कुपोषण आदि के कारण अनेक रोगों एवं दुर्गुणों का
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