Book Title: Nandanvana
Author(s): N L Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 512
________________ (492) : नंदनवन पारिभाषिक शब्दों की सूची बनायें और उनके लिये आधुनिक शब्द का विधान करें। इसके लिये विषय विशेषज्ञों के पैनल बनाये जायें और उनके एकीकृत प्रयास से एक मानक शब्दावली का निर्माण कराया जाय जिसका उपयोग भविष्य में किये जाने वाले अनुवादों में समान रूप से किया जा सके। जैन दार्शनिक और लौकिक विद्या के साहित्य को हिन्दी के साथ अंग्रेजी में भी अनुदित करने की समस्या भी आज महत्त्वपूर्ण बन गई है। इसके लिये भी साथ ही साथ एक समकक्ष शब्दावली का निर्माण किया जाना चाहिये। अभी तक विश्व के दार्शनिक और वैज्ञानिक विचारों और अवधारणाओं के ऐतिहासिक निरूपण में जैनों क्या- भारतीयों के योगदान की चर्चा नाममात्रेण ही पाई जाती है। इसका वास्तविक मूल्यांकन ऐसे ग्रन्थों के विदेशी भाषाओं में समुचित अनुवाद करने पर ही सम्भव है। इसके लिये भी अनेक संस्थाओं को मिल कर समन्वित योजना बनानी चाहिये। यद्यपि अनुवाद कार्य मौलिक नहीं माना जाता, फिर भी इसकी अपनी एक गरिमा है। इसके लिये यह आवश्यक है कि अनुवादक स्वयं को मूल लेखक के रूप में प्रस्तुत कर सके। उसके अन्तरंग भावों को हृदयंगम कर उन्हें आकर्षक और रोचक अभिव्यक्ति दे सके। अललित साहित्य का अनुवाद स्पष्टतः ललित साहित्य के समान रोचक तो नहीं हो सकता, फिर भी उसमें यथाशक्ति भाषात्मक एवं भावात्मक सरलता लाई जा सकती है। लेकिन यह सरलता विषय विशेष पर निर्भर करेगी। इस तथ्य को अनेक अनुवादकों ने स्वीकार किया है। इसलिये कुछ धार्मिक ग्रन्थों के अनुवाद सफल भी रहे हैं। अनुवाद की सफलता के लिये अनुवादकों में विषय ज्ञान के साथ अनेक भाषा प्रवीणता भी अपेक्षित है। इस दृष्टि से नई पीढ़ी को कुछ अधिक श्रम करने की आवश्यकता है। यह स्पष्ट है कि ऐसे कार्य में तात्कालिक महत्ता या प्रचार-परक लोकप्रियता नहीं होती। इसलिये अनुदित साहित्य के प्रकाशन की समस्या सदैव रही है। पिछले कुछ वर्षों से जीवराज ग्रन्थमाला, भारतीय ज्ञानपीठ, श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वर्णी शोध संस्थान, रमारानी शोध संस्थान, एल. डी. इन्स्टीट्यूट आफ इण्डोलाजी आदि संस्थायें इस कार्य में आगे आई हैं। फिर भी, यह देखा गया है कि 'षड्दर्शनसमुच्चय' के समान ग्रन्थों के अनुवाद-प्रकाशन में एक पीढ़ी तक का समय लगा है। आधुनिक ज्ञानप्रसार के युग में किसी महत्त्वपूर्ण कार्य में इतना समय अत्यधिक प्रतीत होता है। इसके विपर्यास में, यह उदाहरण कितना आश्चर्यजनक लगेगा कि जापान में विभिन्न भाषाओं में लिखे गये महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों शोध-पत्रों का जापानी अनुवाद लगभग उसी समय (या तीन माह के अन्दर) प्रकाशित होता है जब वे अपनी मूल भाषाओं में प्रकाशित होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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