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(490) : नंदनवन
काव्यों एवं महाकाव्यों के अध्ययन और धार्मिक साहित्य के अनुवाद एवं टीकाग्रंथ भी समाहित हैं। इसके विपर्यास में, अललित साहित्य आता है जिसमें लौकिक विद्याएँ-न्यायशास्त्र, वैज्ञानिक और तकनीकी ग्रन्थ आदि आते हैं। इनका अध्ययन अभी अल्पमात्रा में हुआ है। इस दिशा में समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन सीमित ही है।
आज के युग में इस साहित्य में निहित ज्ञान के प्रचार-प्रसार की महती आवश्यकता है। इसका कारण न केवल इसके सार्वभौम नैतिक उपदेश ही हैं, अपितु इनमें व्यक्त लौकिक व वैज्ञानिक जगत् सम्बन्धी अनेक अवधारणाएँ एवं उनकी उत्थानिकाएँ भी हैं जो इस साहित्य में उपलब्ध होती हैं। यह बीसवीं सदी में भी इसलिये समुचित रूप में प्रसारित नहीं हो पा रहा है कि यह साहित्य अधिकांश ऐसी भाषाओं में है जिनसे आज का जनसाधारण अपरिचित होता जा रहा है- संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश। इसलिये इसे वर्तमान भाषाओं में ही करना आवश्यक नहीं है, अपितु पश्चिमी भाषाओं में भी करने की आवश्यकता है। यद्यपि अनेक धार्मिक ग्रंथों के हिन्दी और अंग्रेजी में अनुवाद 1930 से ही होने प्रारम्भ हो गये थे, फिर भी अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं जिनके भाषान्तर की आवश्यकता है।
अभी तक इस क्षेत्र में जो भाषान्तर हुये हैं, उनके अवलोकन से पता चलता है कि अनेक तो द्रव्यानुवाद मात्र हैं, जबकि अनेक भावानुवाद हैं। वस्तुत' आज भावानुवाद की ही आवश्यकता है। हाँ, भावानुवाद को ग्रंथकार के विचारों व तथ्यों का द्योतक होना चाहिये। इस समय अनुवाद की प्रमुख भाषा हिन्दी है। फिर भी कुछ ग्रंथों का अंग्रेजी में भी अनुवाद हुआ है। अब नये युग के अनुरूप अनेक आगम-तुल्य ग्रंथों के हिन्दी और अंग्रेजी में अनुवादों का भी श्रीगणेश हो चुका है।
वस्तुतः ललित साहित्य के अनुवादों में भी कुछ समस्यायें हैं, लेकिन मैं यहां दार्शनिक और वैज्ञानिक साहित्य के अनुवाद की समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित करूंगा। इस कोटि के साहित्य की अनेक विशेषतायें हैं। इनके विषय प्रायः लौकिक जीवन से सम्बन्धित तथा दैनन्दिन उपयोगी होते हैं। अधिकांश प्रकरणों में इनकी वैज्ञानिक जांच की जा सकती है। इन विषयों के निरूपण में सामान्य भाषा के अतिरिक्त अनेक तकनीकी शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है। यही नहीं, विभिन्न लौकिक विषयों, ज्योतिष, द्रव्य-धातु परीक्षा, अजीव पदार्थ, गणित, भूगोल, खगोल, दर्शन आदि की अपनी-अपनी विशेष शब्दावली भी होती है। विभिन्न क्षेत्रों एवं युगों में यह परिवर्तित और परिवर्धित भी होती रहती है। उदाहरणार्थ, प्राचीन गणित और पदार्थ शास्त्र में अनेक शब्द ऐसे हैं जिनके समकक्ष आज कौन-सा शब्द लिया जाय, यह स्पष्ट नहीं होता। प्राचीन काल में द्रव्य, तत्त्व, अर्थ, पदार्थ
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