________________
अललित जैन साहित्य का अनुवाद कुछ समस्यायें
: (491)
आदि समानार्थक माने गये हैं जबकि आज इनमें कुछ भेद गणनीय हैं। 'पुद्गल' शब्द का समानार्थी कोई शब्द ही नहीं है। गणित में भी क्षेत्र और कालप्रमाणों को आज की भाषा में व्यक्त किये बिना नहीं समझा जा सकता । इसी प्रकार विषयों से सम्बन्धित साहित्य में पारिभाषिक शब्दों की समस्यायें हैं। साथ ही, विभिन्न परम्पराओं के साहित्य से समकक्षता की समस्या भी है जो तुलनात्मक अध्ययन के लिये आवश्यक है । फलतः इस साहित्य के अनुवाद में सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या इनमें प्रयुक्त शब्दावली के आधुनिकीकरण की है। इसके बिना इन अनुवादों की उपयोगिता अत्यन्त सीमित रहेगी। यह समस्या अभी कुछ समय पूर्व पश्चिमी भाषाओं के वैज्ञानिक साहित्य को हिन्दी में अनुवाद करते समय भी प्रस्तुत हुई थी। अनेक विद्वानों ने इस विषय में व्यक्तिगत प्रयास किये, पर एकरूपता के अभाव में दुविधा ही बढ़ी थी । अन्त में भारत सरकार ने तकनीकी शब्दावली निर्मित कर अनुवादों में अखिल भारतीय स्तर पर एकरूपता लाने में पर्याप्त सफलता पाई है। पश्चिमी भाषाओं के शब्दों के पारिभाषीकरण के लिये भाषाशास्त्रियों तथा विषयविदों की सम्मिलित संविद ने कुछ सिद्धान्त भी स्थिर किये। इसके अनुसार कुछ शब्द लिप्यंतरित कर लिये गये, कुछ भावानुवादित कर लिये गये और अनेक शब्द गढ़े गये। इसके सिद्धान्त हमारा भी मार्गदर्शन कर सकते हैं।
वर्तमान में प्राचीन भारतीय तकनीकी और वैज्ञानिक साहित्य की वैसी ही स्थिति है जो अठारहवीं - उन्नीसवीं सदी में पश्चिम में वैज्ञानिक साहित्य की थी । यह भिन्न-भिन्न देशों के वैज्ञानिकों द्वारा अपनी-अपनी भाषाओं में अपनी-अपनी शब्दावली के आधार पर तैयार किया जा रहा था। इसमें पारिभाषिक शब्दों और संकेतों में विभिन्नता दुरूह थी और एक देश में किये गये कार्य का लाभ दूसरे वैज्ञानिकों तक सही रूप में नहीं पहुंच पाता था। इस कारण विज्ञान की प्रगति मन्द रही। हमारे देश में भी भिन्न-भिन्न पद्धतियों ने अपने-अपने विशिष्ट मन्तव्यों, तत्त्वों को इतनी विविध प्रकार की पारिभाषिकता दी है कि भाषा के एक रहते हुये भी वह दुरूहता की कोटि में आती गई। इस दुरूहता को दूर करने का अब समय आ गया है। विभिन्न भारतीय पद्धतियों में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों की पहले समकक्षता और बाद में एकरूपता का प्रयत्न किये बिना जैन साहित्य ही क्या - भारतीय अललित साहित्य का समुचित तुलनात्मक मूल्यांकन व प्रचार सम्भव नहीं दिखता । यही बात कुछ अंशों में ही सही, धार्मिक साहित्य के पारिभाषिक शब्दों पर भी लागू होती है।
इस समस्या के समाधान के लिये मेरा सुझाव है कि समाज की विभिन्न अनुसंधान संस्थायें मिलकर इस विषय पर विचार करें, विभिन्न
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org