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(416) : नंदनवन
स्पष्ट है कि वैज्ञानिक अन्वेषणों के कारण कर्मवाद की वैसी महत्ता में कमी आई है जो शास्त्रीय युग में रही है, क्योंकि हमारे निर्माण एवं विकास में इस अध्याय के खंड 10 में प्रस्तुत अनेक अतिरिक्त कारक समाहित हो गये हैं। 17. बीसवीं सदी में कर्मवाद के लिये कुछ प्रश्न ।
बीसवीं सदी को वैज्ञानिक प्रगति की सदी माना जाता है। इसके अंतर्गत, भौतिक विज्ञान की तो प्रगति हुई ही है, जीव-विज्ञान के क्षेत्र में भी काफी प्रगति हुई है : 1. डार्विन का विकासवाद, 2. लिंग-परिवर्तन, 3. टेस्ट-ट्यूब बेबी और 4. अब क्लोनिंग की प्रक्रिया, 5. और फलतः पुरुष के गर्भधारण की क्षमता की सम्भावना तथा 6. अनुवांशिकी प्रौद्योगिकी। जैन धर्म के अनुसार, चेतना का विकास एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक क्रमिक एवं पूर्वबद्ध कर्म पर आधारित होता है। एक ओर जहां विकासवाद भौतिक जीव (कर्म-आत्मा) के क्रमिक विकास को अनेक आधारों पर मान्यता देता है, वहीं वह कर्म की उत्परिवर्तनीयता पर मौन रखता है। थियोसोफी की विचारधारा भी मनुष्य को विकास का चरम बिन्दु मानती है, पर वह भी उसे निम्नतर कोटि में पुनः परिवर्तनीय नहीं मानती। फलतः विकासवाद जीवन के उत्परिवर्तनीयता की दृष्टि से जैन धर्म की तुलना में कुछ कमजोर लगता है। सम्भवतः डार्विन अध्यात्मवादी न रहा हो।
अन्य पांच प्रकरण भौतिक दृष्टि से नाम कर्म या अन्य कर्मों के संक्रमण से सम्बन्धित हैं जिसे जैनों ने कर्म की एक अवस्था माना ही है। पर टेस्ट-ट्यूब बेबी एवं क्लोनिंग के जन्म को क्या कहेंगे ? यह प्रश्न है। टेस्ट-ट्यूब बेबी को हम प्रच्छन्न या परोक्ष गर्भ जन्म मान भी लें, तो भी क्लोनिंग को जन्म की प्रक्रिया को क्या कहेंगे ? जलज ने इसे संमूर्छन जन्म माना है जबकि ए. के. जैन इसे गर्भ जन्म मानकर गर्भ जन्म की परिभाषा को किंचित् परिवर्तित करने के पक्ष में हैं। ये प्रश्न विचारणीय हैं।
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