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पर्यावरण और आहार संयम : (477)
पदार्थों की आपूर्ति
जनसंख्या ~ स्थिर का अनुपात प्रायः स्थिर बना रहता है। इसमें अधिक विसंगति आने पर ही यह स्थिरता भंग होती है। जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ औद्योगीकरण के कारण यह सन्तुलन और भी विसंगत होने लगता है। अपने प्रारम्भिक काल में तो इस विसंगति का अनुमान भी नहीं लगा, पर जब हमारे जीवन पर उसके प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगते हैं, तब यह चिन्तनीय विषय बन जाता है।
पर्यावरणशास्त्री बतातें हैं कि इस विसंगति के दो ही प्रमुख कारण हैं: 1. जनसंख्या की अपार वृद्धि 2. वर्धमान औद्योगीकरण
प्रारम्भ में तो औद्योगीकरण को ही इस विसंगति का प्रमुख दोषी पाया गया, पर उपभोक्ता संस्कृति के विकास के साथ जनसंख्या वृद्धि को भी अब बराबर का दोषी माना जाने लगा है। यह वास्तविकता भी है। 1. जनसंख्या की वृद्धि और संयमन
विश्व में तथा भारत में जनसंख्या वृद्धि के आंकड़ों का अनुमान लगाया गया है और वर्तमान आंकड़े तो जनगणना से मिलने ही लगे हैं।
जैन धर्म के अनादि विश्व की मान्यता के विपर्यास में, वैज्ञानिक विकासवादी हैं। उसके अनुसार 10,000 वर्ष में मनुष्यों की जनसंख्या में दस लाख से छह अरब अर्थात् छह हजारगुनी वृद्धि हुई है (चित्र 2)। चित्र 1 के अनुसार भारत के हर तीसवें वर्ष में जनसंख्या दुगुनी सम्भावित है। यह वृद्धि और भी अधिक हो सकती है क्योंकि चिकित्सा विज्ञान की प्रगति से मृत्युदर घटी है, दीर्घजीविता बढ़ी है और जन्म दर की सुरक्षा भी बढ़ी है। इस वृद्धि के साथ उसकी आवश्यकतायें भी ज्यामितीय अनुपात में बढ़ेंगी।
चित्र 2. विश्व की जनसंख्या की वृद्धि
जनसंख्या, अरब में
1850
1925
1950
1975
2000
वर्ष
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