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नंदनवन
पर्यावरण संयम और जैन सिद्धान्त
यह सुज्ञात है कि प्राचीन एवं मध्यकाल तक की ग्राम-बहुल कुटीर उद्योग एवं अल्प जनसंख्या के युग में पर्यावरण-असन्तुलन जैसी कोई समस्या ही नहीं थी। फलतः तत्कालीन ग्रंथों मे आज की पर्यावरण-संयमन की समस्या के लिये ठोस समाधान नहीं पाये जाते। फिर भी, हमारे आचार्य दूरदर्शी थे। उनके लिये धर्म एक जीवन शैली था जिसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के अनुरूप दिशा निर्देशक सिद्धान्त दिये गये हैं। जैन धर्म के सामान्यजन के लिये पालनीय बारह व्रतों में से कम से कम आठ व्रत पर्यावरण के प्रेरक तत्त्व हैं : 1. जमीन पर चलने-फिरने, बोलने उठाने- 1. अहिंसा व्रत, समिति
रखने एवं शौचादि क्रिया के पालन में
सावधानी 2. निरुद्देश्य जल, बिजली, वृक्ष, जमीन और 2. अनर्थदंड व्रत, दिग्व्रत,
अब पेट्रोलियम का उपयोग न करना, देशव्रत अनावश्यक एकेन्द्रिय जीवों का घात न करना, अनावश्यक यात्रादि न करना शाकाहारी जीवन-शैली अपनाना, भूख से 3. भोगोपभोग परिमाणव्रत, कुछ कम खाना, विकृत भोजन न करना, प्रोषधोपवास आदि व्रत सीमित वस्तुओं का संग्रह और उपयोग अपरिग्रह व्रत, अहिंसा करना
व्रत 4. ब्रह्मचर्यव्रत पालन, परिवार नियोजन और 4. ब्रह्मचर्यव्रत
जनसंख्या नियंत्रण 5. सर्वप्राणि-बंधुत्व की भावना का प्रवीजन 5. अहिंसा व्रत
और पल्लवन विचारक विद्वानों ने बताया है कि पर्यावरण प्रदूषण सुन्दर चेहरे पर चेचक के दाग के समान है। इसे मिटाना आवश्यक है। इसके लिये आध्यात्मिक पर्यावरण की शैली अपनानी होगी। प्रो.काल्डबेल के अनुसार हमें धर्म पुस्तकों में उपदेशित सर्वप्राणि-बंधुत्व का नया नीतिशास्त्र, आधुनिक युग के अनुरूप, विकसित करना होगा जो विज्ञान और धर्म का समन्वय कर सके। इसके लिये उपरोक्त व्रतों के पालन के साथ मानसिक, वाचिक एवं कायिक संयम या नियन्त्रण का अभ्यास करना होगा। संतोषवृत्ति अपनाकर सामायिक, प्रतिक्रमण जैसी विधियों का दैनिक अभ्यास करना होगा। यदि नई पीढ़ी को इस दिशा में आकृष्ट किया जा सके, तो पर्यावरण सन्तुलनीवृत्ति का विकास होगा और तदनुरूप प्रवृत्ति भी सार्वजनिक होगी।
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