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(476) : नंदनवन
चित्र 1 से यह तथ्य भलीभांति स्पष्ट होता है कि लगभग 2% जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि से भारत जैसे देश की जनसंख्या 35-40 वर्षों में द्विगुणित होती है। इसी आधार पर विश्व की जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है ।
यह पाया गया है कि जनसंख्या वृद्धि ज्यामितीय दर ( द्विगुणित ) से होती है जबकि प्रकृति एवं पर्यावरण की उत्पादकता की वृद्धि आंकिक श्रेणी में होती है । फलतः हमारी आवश्यकतायें सदैव उच्चतर दर से वर्धमान होती हैं। साथ ही, जनसंख्या वृद्धि की कोई सीमा नहीं है जबकि विश्व की जलथल सीमा प्रायः स्थिर है और इसमें नगण्य ही वृद्धि हो सकती है। इसकी उत्पादकता प्रत्येक प्रकरण में खाद्य - श्रृंखला एवं खाद्य जालकों के समान अविरत रूप में पुनष्चक्रित होती रहती है।
चित्र 1 जनसंख्या का द्विगुणन
द्विगुणन क
800
700
600
500
400
300
200
100
जनसंख्या वृद्धि की दर
पौधे / शकाहारी खाद्य -→ मनुष्य / पशु
↑
सौर उर्जा ←--- मूलतत्व और उनके ←
अपघटक जीवाणु
यह स्पष्ट है कि उत्पादकता सौरचक्र ऊर्जा के कारण ही सम्भव होती है। पेड़-पौधे सौर ऊर्जा का 10% भाग ही उपयोग करते हैं, पर हम उसका भी केवल 10% उपयोग कर पाते हैं (जो कुल ऊर्जा का 1% यदि हम शाकाहारी हैं और कुल सौर ऊर्जा का 0.01%, यदि हम अशाकाहारी हैं) । लेकिन हम इसकी ऊर्जा भी प्रकृति को प्रत्यावर्तित नहीं कर पाते क्योंकि इसका काफी अंश हमारे शरीरों के निर्माण, संरक्षण एवं अपशिष्टों के उत्सर्जन, ईंधनों के ज्वलन, वाहित मल आदि) में व्ययित हो जाता है। ऊर्जा की यह मात्रा नवीकरणीय नहीं होती । विश्व में मानव ही ऐसा प्राणी है जो नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों पर निर्भर नहीं करता और सदैव अनवीकरणीय स्रोतों (कोयला, तेल आदि) का उपभोक्ता होता है। प्रकृति में उन स्रोतों का नवीकरण अत्यन्त मंद गति से होता है।
→ मृत जन्तु
फलतः थल सीमा के स्तर तक तो प्रकृति द्वारा उत्पादित खाद्य और अन्य पदार्थ वर्तमान जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहते हैं और
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