________________
अवग्रहेहावायधारणा
सामान्य जनता में धार्मिकवृत्ति को जगाये रखने के लिये अनेक पुरातन आचार्यों ने समय-समय पर उपयोगी ग्रन्थों की रचना की है। इनका मुख्य विषय 'सम्यक् - दर्शन - ज्ञान - चारित्राणि मोक्षमार्गः' ही होता है। वस्तुतः मोक्ष और मार्ग साधुजन सुलभ होता है, सामान्य जन के लिये तो गृहस्थ मार्ग ही प्रमुख है। जिन गृहस्थों के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्य कर्मों का जितना अल्प बन्ध या उदय होता है, वे उतना ही मोक्षमार्ग की ओर प्रवृत्त होते हैं। यद्यपि 'निर्वाणकांड' में मुक्तों की अपरमेय संख्यायें निरूपित की गई हैं, फिर भी पिछले पच्चीस सौ वर्षों में कितने मोक्षागामी हुए हैं, इसका कोई विवरण उपलब्ध नहीं है। फिर भी, मुक्ति में एक मनावैज्ञानिक आकर्षण है, शुभत्व की ओर बढ़ने की प्रेरणा है। यह मार्ग निसर्गज भी बताया गया है और अधिगमज भी। निसर्गज मार्ग भी विरल ही दृष्टिगोचर हुआ है। इसलिये इसके अधिगम के विषय में शास्त्रों में पर्याप्त वर्णन आया है। इसके एक लघु अंश पर ही यहां विचार किया जा रहा है।
अध्याय 12
अधिगम के लिये विषय-वस्तु के रूप में सात तत्त्व और नव पदार्थों का निरूपण किया गया है। इनका अधिगम प्रमाण और नयों से किया जाता है। इनका विवरण अनुयोगद्वार में विशेष रूप से दिया जाता है। पदार्थों का अध्ययन सामान्य या विशेष अपेक्षाओं से छह या आठ अनुयोगद्वारों के रूप में किया जाता है । यह अध्ययन ही ज्ञान कहलाता है। यह ज्ञान सामान्य जन को इन्द्रिय, मन और पदार्थ की सहायता से होता है। योगि जन अथवा महात्माओं को यह ज्ञान अत्मानुभूति के माध्यम से प्राप्त हो सकता है। जहां उन्हें बाह्य साधनों की आवश्यकता नहीं पड़ती। संसारी जीव ही क्रमिक विकास करते हुऐ योगी होता है, फलतः उसका ज्ञान विकास भी बाह्य-साधना - प्रमुख विधि से आगे चल कर अन्तर्मुखी हो जाता है, ऐसा मानना चाहिये । सामान्यजन की ज्ञान-प्राप्ति के लौकिक साधनों के रूप में इन्द्रियां और मन सुज्ञात हैं। इनकी सहायता से प्राप्त ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं। इस प्रकार, सामान्य जन मति और श्रुत-दो ज्ञानों से ही आगे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org