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जैन शास्त्रों में भक्ष्याभक्ष्य विचार : (449)
के निषेध के लिये मूलगुणों या सार्वकालिक व्रतों की धारणा प्रतिपादित की गई। यह प्राचीन दिगम्बर या श्वेताम्बर ग्रंथों में नहीं देखी जाती। पांचवीं सदी के समन्तभद्र के मिश्र वर्गीकरण (अभक्ष्य त्याग, व्रतपालन ) की तुलना में आठवीं सदी के जिनसेन ने अष्ट सार्वकालिक व्रतों में केवल आठ अभक्ष्य पदार्थों को ही रखा - (1-3) मद्य, मांस, मधु का त्याग (ये जैवी क्रिया से प्राप्त होते हैं या इनमें सूक्ष्म एवं त्रस जीव दृष्टिगोचर होते हैं) और (4-8) पंचोदुंबर फल त्याग (इनमें भी सूक्ष्म जीव होते हैं)। फलतः प्रारम्भ में मूलतः आठ पदार्थ ही अभक्ष्य माने जाते थे। इन्हें सोमदेव, चामुंडराय, देवसेन, पद्मनंदि, आशाधर पंडित, राजमल, मेधावी और कुंथुसागर ने भी स्वीकृत किया है। शिवकोटि ने अपनी रत्नमाला में इन आठ मूलगुणों को बाह्य मूलगुण कहा है और वास्तविक मूलगुण समन्तभद्र के ही माने हैं। कहीं-कहीं मधु के स्थान पर द्यूत त्याग मूलगुण कहा गया है। यह तो निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि सप्त व्यसनों की परम्परा कब से चालू हुई, पर इनमें भी मद्य-मांस को व्यसन (अभक्ष्य, त्याग) माना है। मधु यहां भी छूट गया लगता है। कुन्दकुन्द ने भी मद्य को अयुक्ताहार में सम्मिलित नहीं किया है। इससे प्रतीत होता है कि मधु और मद्य की तर्कसंगत अभक्ष्यता विवाद का विषय रही है। आजकल अंडे को मांसाहार के रूप में मानने और उसकी अभक्ष्यता के वैज्ञानिक कारण उपलब्ध हैं, पर शास्त्रों में वर्णित मूलगुणों की किसी सूची में इनका नाम नहीं है। इसके विपर्यास में, औपपातिक सूत्र में इसे आहार-ग्रास का मानक बताया गया है। क्या सूत्रकाल में बिहार में अण्डे का इतना प्रचलन था कि वह मानक बन सके ? दिगम्बरों ने अच्छा किया कि 1000 चावलों के दानों को ग्रास का मानक बताया। समय की मांग है कि इनकी अभक्ष्यता को कहीं न कहीं धार्मिक मान्यता अवश्य दी जाये, चाहे आठ की नौ या दस मूलगुण ही क्यों न हो जायें ? आशाधर ने तो सभी मान्यताओं का समाहार कर नये रूप में आठ मूलगुण बताये हैं। इनमें उपरोक्त अभक्ष्यों के अतिरिक्त अन्य गुण भी सम्मिलित किये गये हैं।
अमितगति ने रात्रिभोजन-त्याग मिलाकर मूलगुणों की संख्या 9 कर दी। अमृतचंद्र ने मक्खन, अनन्तकाय एवं रात्रि भोजन की अभक्ष्यता बताकर इनकी संख्या 11 कर दी। उत्तरवर्ती समयों में अभक्ष्य पदार्थों की संख्या बढ़ती गई। समन्तभद्र एवं पूज्यपाद ने मूली, अदरक, मक्खन, नीम व केतकी के फूलों की अभक्ष्य बताया था। हेमचन्द्राचार्य ने द्विदल को सर्वप्रथम अभक्ष्यों में गिनाया। आगमों के अनुरूप, आशाधर ने भी नाली, सूरण (कन्दमूल), द्रोण पुष्प आदि सभी प्रकार के अनन्तकायों को अभक्ष्य बताया। सोमदेव ने प्याज को उसी कोटि में रखा। उन्होंने कच्चे दूध से बने दही आदि के नये व पुराने द्विदल को अभक्ष्य बताते हुए कलींदा न खाने का भी
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