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जैन शास्त्रों में भक्ष्याभक्ष्य विचार : (453)
(3) मद्य के रस में भी जीव (3) जब इस क्रिया में मद्य की मात्रा 10-15% उत्पन्न होते हैं।
से अधिक हो जाती है, तब इनकी सक्रियता स्वयमेव समाप्त हो जाती है और मद्य
निर्माण बंद हो जाता है। मद्य की एक बंद में अनेक 4) शद्ध मद्य एथिल ऐल्कोहल नामक यौगिक जीव उत्पन्न होते हैं। यदि है। विभिन्न पेय मदिराओं में तथा आसववे बाहर फैलें, तो पूरा अरिष्टादि औषधों में इसकी मात्रा भिन्न-भिन्न संसार उनसे भर जाएगा। होती है।
किण्वन की क्रिया से आजकल बहुतेरे खाद्य,
औषधि और औद्योगिक पदार्थ बनाये जाते हैं। इस क्रिया से निर्मित लगभग 84 पदार्थों की सूची श्रीभ और ब्रिक ने अपनी पुस्तक में
दी है। 2. प्रभाव (1) मद्यपान से रसज/त्रस (1) यह वाष्पशील पदार्थ है और त्वचा पर पड़ने जीवों की हिंसा होती है। पर यह शीघ्र वाष्पित होता है जिससे त्वचा
का तापमान कम होता है और ताजगी का अनुभव होता है। उच्च सांद्रण में यह कोशिकाओं से जल खींचकर उन्हें अक्रिय बना देता हैं, विकृत कर देता है। इससे यह कीटाणु-नाशक एवं प्रतिरोधी होता है। तनु मद्य क्षुधावर्धक होता है। यह पेट की आंतों में हिस्टैमीन एवं गैस्ट्रीन विमोचित कर स्रावों को बढ़ाता है। यह मनोवैज्ञानिकतः उत्तेजक एवं ऊष्मादायी होता है। 15% से उच्च सांद्रण का मद्य नावों की गतिशीलता को रुद्ध करता है, श्लेष्मा-झिल्ली को उत्तेजित करता है, गैस, वमन एवं मितली लाता है तथा पेट और आंतों की एन्जाइमी क्रिया को प्रतिबंधित
करता है। (2) मद्य मन को मोहित करता (4) यह केन्द्रीय नाड़ी तंत्र को अवनत कर
है। मद्यपान से अभिमान, सुखाभास या तनाव-शैथिल्य का आभास भय, क्रोध आदि हिंसक देता है। इस कारण ही मद्यपायी व्यक्ति वृत्तियां उदित होती हैं। समस्त प्रतिबंधों से मुक्त होकर निंदनीय या मद्यपान धार्मिक गुणों को असामाजिक व्यवहार करता है। नष्ट करता है। यह उन्माद, मूर्छा, मिर्गी एवं मृत्यु तक का कारण होता है।
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