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अवग्रहेहावायधारणा : (421) यह ज्ञान दो प्रकार का होता है - अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक। साधारणतः श्रुत को अक्षरात्मक एवं भाषा रूप माना जाता है। प्रारम्भ में यह कण्ठगत ही विकसित हुआ पर समय-समय पर लिखित और मुद्रित रूप मे प्रकट होता रहा है। वस्तुतः आज की भाषा में अक्षरात्मक श्रुत विभिन्न प्रकार के मतिज्ञानों से उत्पन्न धारणाओं का रिकार्ड है जिससे मानव के ज्ञान के क्षितिजों के विकास में सहायता मिले। वर्तमान विज्ञान में ज्ञानार्जन के साथ उसके संप्रसारण का भी लक्ष्य रहता है। विज्ञान की मान्यता है कि ज्ञान का विकास पूर्वज्ञात ज्ञान के आधार पर ही हो सकता है। इसलिये मति से प्राप्त ज्ञान को श्रुत के रूप में निबद्ध किया जाता है। विज्ञान का यह संप्रसारण चरण ही अक्षरात्मक श्रुत मानना चाहिये। इसकी प्रामाणिकता इसके कर्ताओं पर निर्भर करती है : उसकी निरीक्षण-परीक्षण पद्धति से प्राप्त निष्कर्षों की यथार्थता पर निर्भर करती है। अकलंक ने श्रुत की प्रमाणिकता के लिये अविसंवादकता तथा अवंचकता के गुण माने हैं। इस आधार पर उन्होंने 'आप्त' की बड़ी ही व्यापक परिभाषा दी है और आचार्यों के रचित ग्रन्थों और उनके अर्थबोधों को भी प्रामाणिकता की कोटि में ला दिया है। यही नहीं, 'यो यत्र अविसंवादकः स तत्र आप्तः। ततः परोऽनाप्तः। तत्त्वप्रतिपादनमविसंवादः, तदर्थज्ञानात्' के अनुसार वर्तमान वैज्ञानिकों द्वारा लिखित श्रुतों को भी प्रामाणिकता प्राप्त होती है। फलतः नवीन श्रुत में नये अवाप्त ज्ञानक्षितिजों का समाहरण किया जाना चाहिये। यह आज के युग की एक अनिवार्य आवश्यकता है। वर्तमान प्राचीन श्रुत की प्रामाणिकता पर अकलंक के मत का विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। उनके प्रणेताओं ने परम्परा प्राप्त ज्ञान को स्मरण, मनन और निदिध्यासन के आधार पर लिखा है। यही नहीं, उन्होंने विभिन्न युगों में उत्पन्न सैद्धान्तिक एवं तार्किक समस्याओं के लिये परिवर्धित एवं योगशील व्याख्यायें दी हैं जो उनके मनन और अनुभूति के परिणाम हैं। इनसे अनेक भ्रान्तियां भी दूर हुई हैं। विशेषावश्यकभाष्य और लघीयस्त्रय में इन्द्रिय ज्ञान को लौकिक प्रत्यक्ष के रूप में स्वीकृति, वीरसेन द्वारा स्पर्शनादि इन्द्रियों की प्राप्यकारिता-अप्राप्यकारिता की मान्यता, अष्टमूल गुणों के दो प्रकार, प्रमाण के लक्षण का क्रमिक विकास, काल की द्रव्यता आदि तथ्य वस्तुतत्त्व निर्णय में जैनाचार्यों द्वारा परीक्षण और चिन्तन की प्रवृत्ति की प्रधानता के प्रतीक हैं। इसीलिये आचार्य समन्त्रभद्र को 'परीक्षा प्रधानी' कहा जाता है। इस प्रक्रिया में इन्द्रिय और बुद्धि का क्रमशः अधिकाधिक उपयोग किया जाता है इस प्रकार हमारे विद्यमान श्रुत परीक्षण प्रधान हैं, वैज्ञानिक हैं।
वैज्ञानिक ज्ञानप्राप्ति की प्रक्रिया की एक और विशेषता होती है। यद्यपि यह पूर्वज्ञात ज्ञान या श्रुत से विकसित होती है, पर यह पूर्वज्ञात ज्ञान की वैधता का परीक्षण भी करती है। उसकी वैधता का पुनर्मूल्यांकन करती है।
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