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नंदनवन
को बहुकोशिकीय वनस्पति मानने पर उनसे सम्बन्धित धार्मिक एवं भक्ष्याभक्ष्य सम्बन्धी समस्यायें भी पर्याप्त समाधान पा सकती हैं। कन्दमूलों की अभक्ष्यता के तर्कों की समीक्षा
अनेक जैन वनस्पतिशास्त्री यह मानते हैं कि साधारण वनस्पति के कच्चे या अग्निपक्व आहरण में धार्मिक दृष्टि से निम्न दोष हैं:0,21 : अ. भूमिगत कन्दों को उखाड़ने के कारण पौधे का जीवनचक्र पूर्ण नहीं हो
पाता है और यह नष्ट हो जाता है। इससे उसके अवयवी जीवों या कोशिकाओं की हिंसा होती है। भूमिगत कन्दमूलों को उखाड़ने पर उनसे भूमि में चहुंओर और सम्पर्कित
सूक्ष्म जीवों का जीवनचक्र भी नष्ट हो जाता है। स. कन्दमूलों में सांद्रित जीवन होता है। द. भूमिगत कन्दमूलों को आहरण के लिये उखाड़ने पर भूमिगत और
भूमितलीय पर्यावरण संतुलन प्रभावित होता है। इ. धार्मिक ग्रन्थों में कन्दमूलों का आहरण अनिन्दित नहीं है।
(अ) यह सज्ञात है कि भूमितलीय पौधे, फल एवं शाक भी हम प्रायः कच्चे या अग्निपक्व ही खाते हैं। इनकी पूर्णपक्वता इनके सूखने के समय ही आती है जब ये प्रायः अखाद्य और अरुचिकर हो जाते हैं। ककड़ी, कुम्हड़ा, परवल, भिंडी आदि सभी बहुबीजक कौन पूर्णपक्व होने पर खाता है? बहुबीजकीय अभक्ष्यता के साथ क्या प्रत्येक शरीरी वनस्पति सचित्त नहीं होते? क्या इनकी जीव-कोशिकीय रचना के आधार पर इनके आहरण में बहुघात नहीं होता ? भूतल पर भी इनको मूल पौधों से तोड़ने और खाने में एक या अनेक पौधों का जीवनचक्र नष्ट होता है। इनमें भी अगणित एकेन्द्रिय सूक्ष्म कोशिकायें होती हैं। हॉ, इनमें सामान्यतः न तो त्रसजीव होते हैं और न ही ये मद्य, भांग आदि के समान कोई हानि उत्पन्न करते हैं। अतः इन्हें भी क्यों न अभक्ष्य माना जाये ? हॉ, कुछ लोग इन्हें कच्चा तोड़कर सुखाते हैं और फिर सूखे की ही सब्जी खाते हैं। पर इसमें भी सुखाने से जीवनचक्र तो नष्ट होता ही है। भूमिगत तनों के रूप में उपलब्ध कन्दमूलों को भी लोग खाने योग्य या समुचिततः पक्व होने पर ही भूमितलीय फल-फूलों के समान सचित्त अवस्था में खाते हैं। फलतः उनके आहरण में दोष मानना समुचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि ये भी कोशिकीय ही होते हैं। इस मत का समर्थन अनेक जैन वनस्पति शास्त्रियों ने किया है। रही बात, अधिक स्थावर हिंसा की, तो सामान्यजन सूक्ष्म हिंसा के त्यागी नहीं होते और ये आहार के अल्पमात्रिक घटक हैं। अनेक कन्दमूल तो विशेष परिस्थितियों में ही खाये जाते हैं। फलतः इनके आहरण में भी हिंसा अल्प ही होती है। इसलिये बहुधात का दोष उचित नहीं है।
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