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वनस्पति और जैन आहार शास्त्र : (441)
वस्तुतः सचित्ताहार से सम्बन्धित मध्ययुगी विचारधारा के समान अन्य मान्यताओं के कारण ही नई पीढ़ी धर्म से उपेक्षित होने लगी है। उनकी आस्था को बलवती बनाने के लिये हमें वर्तमान में उपलब्ध वैज्ञानिक जानकारी का उपयोग कर स्वास्थ्य एवं धर्मसंरक्षण को प्रोत्साहित करना चाहिये।. उपरोक्त चर्चा के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि 1. सचित्त/आम शब्द प्रत्येक और साधारण-दोनों कोटि की वनस्पतियों के
लिये प्रयुक्त होता है। 2. हमारे सामान्य आहार में प्रत्येक वनस्पति की तुलना में साधारण
वनस्पति का अंश अल्प होता है, अतः उसे बहुघाती हिंसा का स्रोत नहीं
माना जाना चाहिये । 3. भोगोपभोग परिमाण व्रत में कुछ ही सचित्त वस्तुओं का परिमित काल के
लिये त्याग किया जाता है। उन्हें अचित्त कर खाया जा सकता है। 4. सचित्त त्याग प्रतिमा के स्तर पर सभी प्रकार की सचित्त वस्तुओं का
आजन्म त्याग किया जाता है। हां, उन्हें स्वयं या अन्य के द्वारा
अचित्तीकृत कर आहार के घटक के रूप में काम में लिया जा सकता है। 5. शिक्षाव्रती एवं सचित्त त्याग प्रतिमाधारी के विपर्यास में, सामान्य जन या
पाक्षिक श्रावक पर उपरोक्त आहार नियम प्रयुक्त नहीं करने चाहिये क्योंकि उनका जीवन क्रम इनसे विपरीत दिशा में गतिशील होता है। अतः वे सचित्त और अचित्त-दोनों कोटि के प्रत्येक और साधारण वनस्पतियों को अपने आहार में ले सकते हैं। तथापि, धर्ममुखी होने के लिये उन्हें अपने व्यवसायों, संज्ञानों तथा आहार में जहां तक समझ में आये, हिंसा के अल्पीकरण का प्रयत्न करना चाहिये। सामान्य जन के लिये यही कर्म है, यही धर्म है।
वर्तमान वैज्ञानिक युग में हमें अपने प्राचीन या मध्ययुगीन आचार्यों के द्वारा रचित शास्त्रों की सार्वकालिकता के लिये 'पण्णा सम्मिक्खए धम्म' की उत्तराध्ययन की उक्ति के अनुरूप समीक्षण करते रहना चाहिये जिससे हमारा जीवन प्रशस्ततर बन सके और वैज्ञानिक बुद्धिवाद के माध्यम से हम अपने विश्वास एवं भक्तिवाद को प्रबलतर बना सकें।
सन्दर्भ पाठ 1. आचारांग-2 : से भिक्खू भिक्खुणी वा गाहावती जाव पविढे समाणे सेज्जाओ पुण ओसहीओ जाणेज्जा कसिणाओ, सासियाओ, अविदलकडाओ, अतिरिच्छच्छिण्णाओ, अव्वोच्छिण्णाओ तरुणियं वा छिवाडिं अणभिक्कंताभज्जितं पेहाए अफासुयं अणेसणिज्जं ति मण्णमाणे लाभे संते णो पडिगाहेज्जा ।
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