________________
(422) :
नंदनवन
सामान्यतः वैज्ञानिक ज्ञान का प्रामाण्य परतः ही अधिक समीचीन माना जाता है। हमारे शास्त्रों में ज्ञान की उत्पत्ति और ज्ञप्ति की दशाओं के प्रामाण्य के स्वतःपरतः के सम्बन्ध में पर्याप्त चर्चा पाई जाती है। हिरोशिमा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ए. यूनो इस विषय पर विशेष अनुसंधान कर रहे हैं। यह स्पष्ट है कि सर्वज्ञ और स्वानुभूति के ज्ञान को छोड़ कर ज्ञान का प्रामाण्य परतः ही माना जाता है। इस प्रकार हमारा श्रुतनिबद्ध ज्ञान वर्तमान सदी की विश्लेषणात्मक धारा के निकष पर कसा जा सकता है। यह प्रसन्नता की बात है कि जैन दर्शन की अनेक पुरातन मान्यतायें, विशेषतः पदार्थ की परिभाषा, परमाणुवाद की मान्यतायें, ऊर्जा और द्रव्य की एकरूपता आदि - इस निकष पर कसे जाने पर पर्याप्त मात्रा में खरी उतरी हैं। यही कारण है कि आज अनेक विद्वान जैन दर्शन के तुलनात्मक अध्ययन की ओर प्रेरित हो रहे हैं और जैन विद्या के अनेक अज्ञात पक्षों को उद्घाटित कर रहे हैं।
श्रुतज्ञान का अनक्षरात्मक रूप भी हमारे ज्ञानार्जन में सहायक है। इसके असंख्यात भेद होते हैं। संकेत दर्शन, मानसिक चिन्तन तथा ऐसे ही अन्य प्रक्रमों से ज्ञान होता है। वह अनक्षरश्रुतात्मक होता है। आज जो श्रुत विद्यमान है, उसके विविध रूपों का विवरण गोम्मटसार, सर्वार्थसिद्धि आदि में दिया गया है। वस्तुतः विभिन्न श्रुत श्रुतज्ञान के साधन हैं। ज्ञान के रूप में श्रुतज्ञान, मतिज्ञान की सीमा का विस्तार करता है, उसमें बौद्धिक नवीनता लाता है।
इस प्रकार सामान्यजन का वर्तमान ज्ञान "अवग्रहेहवायधारणाः" की प्रक्रिया पर आधारित है। यह प्रक्रिया जितनी ही सूक्ष्म, तीक्ष्ण और यथार्थ होगी, हमारा ज्ञान उतना ही प्रमाण होगा। आज उपकरणों ने अवग्रह की प्रक्रिया में अपार सूक्ष्मता तथा विस्तार ला दिया है। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहाँ आचार्य नहीं हैं जो इस क्षमता का उपयोग कर नये श्रुत का उद्घाटन कर सकें।
सन्दर्भ 1. उमास्वामि, आचार्य (तत्त्वार्थसूत्र, 1-3, वर्णी ग्रन्थमाला, काशी, 1950 2. उमास्वामि, आचार्य पूर्वोक्त, 1-6. 3. उमास्वामि, आचार्य पूर्वोक्त, 1-7. 8. 4. श्रुतसागर सूरि: तत्त्वार्थवृति 1,9 भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली1946. 5, फूलचंद्र सिद्धान्तशास्त्री (वि० क0); (तत्त्वार्थसूत्र) 1-13, वर्णी ग्रन्थमाला,1950. 6. अकलंक देव; लघीयस्त्रय, श्लोक 66-67. 7. भट्टाचार्य, हरिसत्य; जैन विज्ञान, (अनेकान्त) 8. शास्त्री, ए. शान्तिराज (सं.); तत्त्वार्थसूत्र (1-13), (भास्करनंदि टीका), मैसूर
विश्वविद्यालय, 1934.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org