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(426) : नंदनवन
के ऊपर रहता है। यह माना जाता है कि पत्तीवाला भाग भूतलीय अंश है और भक्ष्य है, और भूमिगत अंश भक्ष्य नहीं है। प्रकृति में ये 'आम' या 'सचित्त' अवस्था में पाये जातें हैं और इनका अग्निपक्वन या शस्त्र - परिणमन किया जा सकता है 1
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इन वनस्पतियों की स्थूलता के कारण इनमें अनन्त सूक्ष्मजीव, सम्भवतः निगोदिया जीव, होते होंगे। ये वनस्पति भी प्रकृति में पाये जाते हैं और ये 'हरित' या 'आम' होते हैं। लेकिन ये साधारण वनस्पति प्रत्येक कोटि से भिन्न हैं क्योंकि इनमें एक ही शरीर में अनेक से लेकर अनन्त तक जीव रहते हैं। सूक्ष्म अवस्था में इन्हें निगोदिया ( अनन्त जीवों को स्थान देने वाले) या निगोद कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि सुई की एक नोंक के बराबर स्थान में असंख्यात निगोद जीव होते हैं। यदि हम सुई की नोंक की साइज 10-4 सेंमी. मानें, और असंख्यात का मान सामान्य गणना के अनुसार महासंख के समकक्ष 1020 या महाक्षोभ, 1024 के समकक्ष (गणित सार संग्रह ) मानें (यह मान जैन मान्यतानुसार, सही नहीं है) तो एक सूक्ष्म निगोदिया जीव 10 या 10 सेमी. साइज का गोलाकार या अन्य आकार का होगा। इस तरह एक सेमी. विस्तार में कम से कम 102 या 1028 निगोदिया जीव हो सकते हैं (अनन्त न भी मानें, तो ) । आज के वनस्पति - विज्ञानी की सजीव कोशिका की साइज 10 4-10 सेमी. के लगभग होती है। अतः आधुनिक वनस्पति विज्ञान में इन जीवों की समकक्षता पाना कठिन ही है । इतनें सूक्ष्म जीवों का अस्तित्व तो केवलज्ञानगम्य है । पर आधुनिक वैज्ञानिकों के लिये साधारण वनस्पतियों की अनन्त जीवकायता किंचित् विचारणीय है । अनन्तों की एककायता, अनेकों की एककायता के रूप में माने जानें पर ये वैज्ञानिकों के परजीवी वनस्पति के समकक्ष माने जा सकते हैं। धवला 3.2.1. 87 में इन्हें 'एक - शरीर - द्वियबहूहि जीवेहिं सह' के रूप में बताया है। 'बहु' शब्द अनन्तार्थक कब हो गया, यह अनुसंधेय है। फिर भी, इतने छोटे-से विस्तार में इतने अधिक जीवों के कारण, धार्मिक दृष्टि से, इनकी सचित्त या अचित्त भक्ष्यता विचारणीय हो गई है। यही नहीं, साधारण - वनस्पति की परिभाषा बहुत जटिल है, सामान्यजनों के लिये बोधगम्य भी नहीं है। पौधों के विभिन्न भागों में विविध कोटि की वनस्पति के उल्लेख प्रज्ञापना' में दिये गये हैं ।
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आहार की आवश्यकता
प्रायः सभी जीव आहार के बिना अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकते, चाहे वे पारमार्थिक संसारी जीव हों या व्यावहारिक संसारी जीव हों । दोनों को ही आहार अनिवार्य है। वस्तुतः व्यावहारिक संसारी ही व्यवहार-मार्ग अपनाकर परमार्थिकता की ओर अग्रसर होकर जीवन का
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