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नंदनवन
सकती है), तो कम से कम गृहस्थ लोग ही प्रति व्यक्ति 4.2 x 10127 यूनिट हिंसा करते हैं। यदि हम यह मानें कि एकेन्द्रिय जीवों की तुलना में उच्चतर जीवों का चैतन्य, मरडिया के अनुसार, दुगुना, तिगुना, चौगुना और पंचगुना तथा मनुष्यों के लिये न्यूनतम दस गुना या उच्चतर गुणित मानें, और यदि हम एकेन्द्रिय जीवों की तुलना में इन सभी उच्चतर कोटि के जीवों का मान संख्यात ही मान लें, तो इनसे सम्बन्धित हिंसा का मान निम्न होगा :
(2+3+4+5+10) x 4.2 x 10127 = 9.66 x 10129 यूनिट इस तरह गृहस्थों द्वारा अर्जित हिंसा का मान
___4.2 X 1017 + 9.66 x 10129 = 1.386 X 10129 यूनिट यह पहले बताया जा चुका है कि अनुमोदन की प्रक्रिया में हिंसा का मान पांचगुना होता है, फलतः इस प्रक्रिया में अनुमोदित हिंसा का मान
6.930 x 10129 यूनिट होगा। निवृत्ति-प्रेरक क्रियायें : स्वाध्याय (धर्मोपदेश/चर्चाओं को छोड़कर), प्रतिक्रमण एवं देव-वन्दना आदि में हिंसा
साधुओं की दिनचर्या में इन तीनों ही प्रक्रियाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये क्रियायें साधुओं की 83 प्रतिशत दिनचर्या का अंग हैं। सामान्यतः ये निवृत्ति-प्रेरक क्रियायें हैं। स्वाध्याय की 44 घड़ियों में से धर्मोपदेश और सामाजिक, धार्मिक एवं आयोजन-सम्बन्धी चर्चाओं की प्रायः 8 घड़ी (प्रायः 3/2 घंटे) छोड़कर बाकी 36 घड़ी का समय स्वाध्याय या मनन-चिंतन में ही व्यतीत होना चाहिये। तुलनात्मकतः यह प्रायः 86 प्रतिशत (या 14 प्रतिशत कम) होता है। वैसे सामान्यतः साधु अपनी व्यस्तता के कारण 4 घड़ी के बदले 8-10 घड़ी (लगभग 4-5 घंटे की) निद्रा लेते हैं, फलतः उनके स्वाध्याय का समय 24-26 घड़ी और अन्य क्रियाओं का समय 10 घड़ी होता है। इन प्रवृत्तियों में सामान्य एकेन्द्रियों का ही पीडन होता है जिसका समाहरण स्वाश्वोच्छवासादि प्रवृत्तियों में ही हो जाता है। अतः इसमें अतिरिक्त हिंसन नहीं मानना चाहिये। फिर भी, वचन-उच्चारण आदि विशिष्ट क्रियाओं के कारण कुछ अधिक हिंसन तो मानना ही चाहिये। ये निवृत्तिमूलक प्रवृत्तियां आत्मशोधन एवं पुण्यसंवर्धन की प्रतीक हैं। ___गृहस्थ एवं साधुओं की प्रवृत्तियों में होने वाली हिंसा को सारणी 5 में दिया गया है। इससे स्पष्ट है कि आज के साधुवर्ग की प्रवृत्तियों में गृहस्थों की तुलना में हिंसा के अर्जन में अधिक अन्तर नहीं होता। यह मात्र 20 प्रतिशत ही कम होता है। इनकी अहिंसक प्रवृत्तियों का मूल्यांकन अपेक्षित है। इस हिंसाजन को उदासीन करने के लिये ज्ञानीजनों का मार्ग दर्शन आवश्यक है।
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