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(404) : नंदनवन
नैतिकता-संवर्धक है। भारतीय मानस में यह सिद्धान्त इतना लोकप्रिय हो गया है कि इसे सभी समस्याओं का समाधान माना जाने लगा है और इसकी वैज्ञानिक विवेचना की आवश्यकता नहीं समझी जाती। यह एक विश्वास बन गया है, यहां बुद्धि कम ही काम करती है। जैनों ने इसे भौतिक स्वरूप देकर इसे वैज्ञानिक विचार की कोटि में ला दिया है। कर्मवाद से सम्बन्धित जैनों की मुख्य अभिगृहीतियां निम्न हैं : 1. कर्म सूक्ष्मतर भौतिक कणों-ऊर्जाओं से निष्पन्न स्कंध होता है जो दो से
अधिक चरम परमाणुओं से बना है। यह अदृश्य, इंद्रिय-अग्राह्य एवं सूक्ष्म
है। ये स्कंध कर्मवर्गणा कहलाते हैं। ये चतुस्पर्शी होते हैं। 2. विश्व सर्वतः क्रियाओं, विचारों, वाणी, वर्ण आदि के अदृश्य
कर्म-परमाणुओं/स्कंधों से व्याप्त है। 3. विश्व में व्याप्त सभी परमाणु कर्म नहीं कहलाते। केवल वे ही कण कर्म
कहलाते हैं जिनमें जीव के साथ संलग्न होने की क्षमता होती है। जीव के साथ के इनके संलग्न होने के परिमाण एवं तीव्रता क्रियाओं की प्रकृति के अनुपात में होती है जो चुम्बक, रक्त-तप्त कन्दुक या
आर्द्रवस्त्र के समान कर्मों को आकृष्ट करती हैं। 4. कर्मों की प्रकृति कुमार द्वारा दिये गये अनेक उपमानों से समझी जा सकती
है। कर्म राजा है, शत्रु है, बिजली है, पर्वत है, काजल है, ईंधन है, बीज है, रज है, मल है, चक्र है, विष है, बेड़ी है, और अपशिष्ट है। इसके लिये
अपरिष्कृत पेट्रोल तथा कोषागार आदि के, कुछ नये उपमान भी दिये जाते हैं। 5. जीव के अनेक भौतिक और आध्यात्मिक गुण होते हैं। उसमें दस संज्ञायें होती
हैं, ज्ञान, दर्शन, सुख, और वीर्य की उच्चतम सीमा होती है। कर्म-कण जीव की इन क्षमताओं को, उनके उपयोग को पांच प्रकार से प्रभावित करते हैं : (अ) वे इन गुणों को सूर्य के आवरण और मादकता-उत्पादी द्रव्य के
समान आवरित करते हैं। (ब) वे इन गुणों को विकृत करते हैं। (स) वे अध्यात्म-पथ के विरोधक होते हैं। (द) वे राग-द्वेष उत्पन्न कर बेड़ी के समान होते हैं।
(इ) वे भूत और भविष्य को वर्तमान से जोड़ते हैं। 6. ये दो प्रकार के होते हैं : (1) द्रव्यकर्म, (2) भाव कर्म। ये एक-दूसरे से कार्यकारण के चक्र से सह-सम्बन्धित हैं :
द्रव्यकर्म - भावकर्म ये एक अन्य रूप में भी दो प्रकार के होते हैं : (1) शुभ या पुण्य कर्म और (2) अशुभ या पापकर्म अथवा (1) सामान्य कर्म और (2) नोकर्म (कर्म-प्रेरक)
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