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हिंसा का समुद्र : अहिंसा की नाव : (389)
सारणी 2 : साधु की दिनचर्या निवृत्तिमार्गी क्रियायें अ : चार बार स्वाध्याय : 11 घड़ी प्रत्येक 1. पूर्वाह्निक स्वाध्याय : 6.48- 11.12 पू. 11 घड़ी 4 घं. 24 मि. 2. अपराहिनक स्वाध्याय : 12.48-5.12 अ. 11 घड़ी 4 घं. 24 मि. 3. पूर्वरात्रिक स्वाध्याय : 6.48 - 11.12 रात्रि 11 घड़ी 4 घं. 24 मि. 4. अपररात्रिक स्वाध्याय : 12.48 प्रातः-5.12पू. 11 घड़ी 4 घं. 24 मि.
17.36 ब : दो बार प्रतिक्रमण : 2 घड़ी प्रत्येक 1. रात्रिक प्रतिक्रमण : 5.12 प्रातः - 6.00 प्रातः 2 घड़ी 48 मि. 2. दैवसिक प्रतिक्रमण : 6.00 सायं - 6.48 सायं 2 घड़ी 48 मि.
1.36 स : दो बार देववन्दना, आचार्यभक्ति और मनन : 2 घड़ी प्रत्येक 1. प्रातःकालीन 6.00 - 6.48 प्रा.
2 घड़ी 48 मि. 2. सायंकालीन 5.12 - 6.00 सा.
2 घड़ी 48 मि.
1.36 प्रवृत्तिमार्गी क्रियायें : 1. शौचादि नित्य क्रिया - 2. आहार चर्या. एक बार 11.12 -- 12.48 4 घड़ी 1 घं. 36 मि. 3. निद्रा
12.48 – 2.24 4 घड़ी 1 घं. 36 मि.
3.12 4. सामान्य विहार और वर्षायोग नैमित्तिक क्रियायें हैं।
यह कहा जा चुका है कि स्वाध्याय के अनेक रूप हैं। भक्तों की धार्मिक या सामाजिक समस्याओं का समाधान भी उसका एक रूप है । अनेक प्रकार की सुझाई गई अहिंसक या हिंसागर्भी योजनाओं पर चर्चा, अनुमोदन एवं आर्शीवाद देना भी इसमें संभवतः, समाहित है। इसीलिये मुनि सरलसागर जी के अनुसार, अनेक एकेन्द्रिय से लेकर संभावित पंचेंद्रिय कोटि तक के जीवों के पीड़न से भरे अनेक आयोजन और निर्माण कार्य आशीर्वादित होते हैं और साधु-गणों का सान्निध्य प्राप्त करते हैं। इनमें से अनेक में सामाजिक विघटन या आक्रोश भी जन्म लेते हैं। इससे मानसिक दृष्ट्या आघातित होकर पशु-सेवा की ओर भी गति होने लगी है। कम से कम उनकी मूकता के कारण आक्रोश आदि का सामना तो नहीं करना पड़ता। हां, इन सेवाओं में संचालन की मानवजनित समस्याये अलग ही होती हैं। सामान्यतः इन
* ग्रंथों में इसके लिये समय नहीं दिया गया है, पर यह मुख्यतः प्रातःकालीन देव-वंदना आदि के बाद 6.48 से 7.36 प्रायः दो घड़ी तक मानना चाहिये। इस क्रिया को कायशुद्धि का एक अंग मानना चाहिये। इस क्रिया से शुद्धि के पश्चात् ही पूर्वान्हिक स्वाध्याय होता है, ऐसा अनुमान है। तदनुसार, पूर्वान्हिक स्वाध्याय का समय कुछ कम हो जायेगा। यहां एक घड़ी को 24 मिनट के बराबर लिया गया है।
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