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(392) : नंदनवन
व्यावहारिक हैं, यह विचारणीय है। उदाहरणार्थ, बंबई, दिल्ली, न्यूयार्क और लंदन के समान नगरों में क्या ये लाभ मिल सकते हैं ?
शौच और शौचालयमूलक हिंसा : पश्चिमगामी कुछ श्वेताम्बर साधु एवं दिगम्बर भट्टारक न केवल स्वक्षालित शौचालयों के उपयोग करने का अपवाद - मार्ग अपनाते हैं, अपितु वे वाहनों का उपयोग भी करते हैं। इस कारण कुछ श्वेताम्बर साधुओं को संघ से बहिष्कृत भी किया गया। धर्म-संवर्धन के पुण्य की तुलना में इस दंड को उन्होंने नगण्य ही माना । (अन्य धर्मावलम्बी समकक्षजनों के लिये इसे बहुत आपत्ति - जनक नहीं माना जाता) । वस्तुतः विलियम ने इस विषय में एक अच्छा वाक्य लिखा है कि जैनों के प्रायः सभी आचार अन्य धर्मियों के आचार के विरोध में विकसित हुए लगते हैं । इसीलिये जैनधर्म लोकप्रिय नहीं हो सका पूना में सम्भवतः 1967 में सम्पन्न श्वेताम्बर साधु-सम्मेलन में इस विषय में स्वविवेक से निर्णय लेने का प्रस्ताव पारित कर अपवाद मार्ग पर अपनी मौन स्वीकृति दी थी। पर दिगम्बर साधु इस विषय में यथार्थता को नकारते हुए अपने समय में परम्परावाद का ही समर्थन करते हैं, यद्यपि इसके कुछ- एक अपवाद भी हैं।
स्वक्षालित शौचालयों के उपयोग को नगरीय स्थितियों के अनुरूप स्वीकृत करने में अनेक दिगम्बर साधु दो तर्क देते हैं: 23
1. स्वक्षालित शौचालयों में सूर्य-किरणें नहीं प्रवेश कर पातीं, अतः उनकी मल - वियोजन या निस्तारण क्षमता उच्च नहीं होती।
2. ऐसे शौचालयों में उत्पन्न अवायुजीवी बेक्टीरिया एकेन्द्रिय नहीं, दो
इंद्रिय हैं। इनका पीड़न अधिक हिंसामय होता है 1
ये दोनों ही तर्क वैज्ञानिक दृष्टि से पूर्णतः सही नहीं हैं। यह सही है कि खुले शौचालय में बेक्टीरिया वृद्धि अधिक होती है और मिट्टी के जीवाणुओं से मिलने पर तो यह और भी अधिक होती है। अतः मल - वियोजन क्षमता उच्च होती है। लेकिन उसमें सूर्य किरणों की ऊर्जा अवायुजीवी तंत्र की तुलना में उच्चतर जीवन-क्षमता की कोटि के जीवाणुओं को भी अधिक मात्रा में उत्पन्न करती है। फलतः इसमें दोनों कोटि के जीवों का (एकेन्द्रिय एवं उच्चतर ) पीड़न अधिक होगा। यदि एकेन्द्रियों के पीड़न को विहित भी माना जाय, तो उच्चतर कोटि के जीवों के पीड़न को तो महत्त्वपूर्ण मानना ही चाहिये। यही नहीं, मल-मूत्र के अर्थ ठोस होने से उसका मिट्टी में पारगमन भी होता है, जिससे उसमें विद्यमान उच्चतर कोटि के जीवों का भी हिंसन होता है । यह अविहित है। यहां एकेन्द्रिय और उच्चतर कोटि के जीवों का अनुपात क्या है, यह अनुमानित ही है, पर यदि उच्चतर इंद्रिय के जीवों की चेतना एकेन्द्रियों की तुलना में षट्स्थानपतित हो तो भी वह औसतन संख्यातगुनी तो मानी ही जा सकती है। इस प्रकार,
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