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हिंसा का समुद्र : अहिंसा की नाव : (391) डग (3500 डग/किमी) चलने पड़ते है। यदि व्यक्ति के औसत पैर का क्षेत्रफल 337.5 वर्ग सेमी. हो, तो क्षेत्रफल का कुल मान
3500 x 337.5 =11712.5 x 10° x 10* = 1.17 x 10' वर्ग सेमी. होगा। (एक पाद की लम्बाई-चौड़ाई औसतन 9" x 6" ~22.5 x 15 सेमी. मान लीजिये)। यदि यूनिट क्षेत्रफल में, अलेक्जेंडर के अनुसार 10°/वर्ग सेमी. सूक्ष्म जीवाणु या कभी-कभी उच्चतर जीवाणु माने जाय, तो इन जीवाणुओं के पीड़न की न्यूनतम हिंसाः
1.17125 x 10' x 10 x 103 ~ 1012 यूनिट होगी 10,000 श्रोताओं के लिये यह 10 यूनिट होगी। इसके विपर्यास में, यदि धर्मोपदेश नगरीय क्षेत्र या उपाश्रय में हो, तो न केवल श्रोता ही अधिक होगें (प्रायः 20 प्रतिशत अधिक), अपितु उनके द्वारा सम्पन्न हिंसा का मान भी निम्न प्रकार से कम होगा।
सामान्यतः नगरों में धर्मोपदेश स्थान की अधिकतम दूरी 3-4 किमी. होती है और यदि वहां श्रोताओं की संख्या 12,500 है, तो 3500/कि.मी. के आधार पर 3-4 कि.मी. (औसतन 2 कि.मी., क्योंकि बहुतेरे लोग तो पदयात्रिक दूरी पर ही होंगे) की दूरी के लिये जीवाणु-हिंसन का मान,
क्षेत्रफल : 3500 x 2 x 337.5 = 2.36 x 10 वर्ग सेमी. फलतः हिंसन-यूनिटों का मान :
2.36 x 10 x 108 x 103 = 2.36 x 101 यूनिट और, 12,500 व्यक्तियों के लिये, हिंसन -यूनिटों का मान,
= 12,500 x 2.36 x 101 = 2.95 x 1013 यूनिट फलतः यह स्पष्ट है कि यह मान दूरवर्ती धर्मोपदेश स्थान की तुलना में लगभग सहस्रांश (1013 : 10७) ही हागा । इस प्रकार धर्मोपदेश-स्थल की दूरी के कारण श्रोताओं को सहस्र-गुणित हिंसा करनी पड़ती है। इसे अल्पीकृत करने के उपाय करने चाहिये। आजकल नगरों में ऐसे भवन या सार्वजनिक स्थान उपलब्ध हैं जिनके उपयोग से यह प्रयत्न सम्भव है।
दूरस्थ उपदेश-स्थल के तीन लाभ तो स्पष्ट हैं ही : 1. प्रायः एकाधिक कि.मी. के आवागमनजन्य श्रम से एवं तीर्थाटन से
प्राकृतिक स्वास्थ्य लाभ। 2. आगमविहित वातावरण में उच्चार–प्रस्रवणादि क्रियायें कृषि के लिये खाद
का काम करती हैं। 3. तीसरा लाभ धर्म एवं पुण्य लाभ है।
ये लाभ वन्य, ग्रामीण या अर्धनगरीय युग के तो अनुरूप हैं, पर आज के औद्योगिक एवं महानगरीय संस्कृति के युग में कितने उपयोगी एवं
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