Book Title: Nandanvana
Author(s): N L Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 410
________________ (390) : नंदनवन कार्यों में सामान्य हिंसा का अनुमापन तो किया जा सकता है, पर मनोभावात्मक पीडन का मापन कैसे हो, यह एक प्रश्न है। लेखक ने यह भी बताया है कि देववन्दना, प्रत्याख्यान, स्वाध्याय तथा प्रतिक्रमण मुख्य क्रियाये हैं, अन्य तो इन्हीं के प्रत्यंग के रूप में मानी जाती हैं। इन क्रियाओं के विवरण से इन्हें आत्ममुखी माना जाता है, पर स्वाध्याय का विवरण तो धर्मोपदेश, पठन-पाठन आदि के माध्यम से परहितकारी भी कहा जा सकता है। इससे नवदीक्षित साधुजन तथा सभी कोटि के श्रावकगण लाभान्वित होते हैं। फलतः साधु आत्मकल्याणी तो होता ही है, वह परकल्याणी भी होता है। साधु की सामान्य दिनचर्या पर व्यक्तिवादी या स्वार्थी होने का आरोप लगाया जाता है, पर आचार्य महाप्रज्ञ ने बताया है कि स्वार्थ एवं आत्मसाक्षात्कार में विलोम-सम्बन्ध है। आत्महितैषी प्राणी कभी स्वार्थी नहीं हो सकता क्योंकि उसके लिये सभी आत्माओं में समान क्षमता होती है। यद्यपि स्वाध्याय- सम्बन्धी निवृत्तिमार्गी क्रियायें मुख्यतः अहिंसापरक मानी गई हैं, फिर भी इनमें वचनों को प्रेरित करने वाले कर्मों एवं कृतिकर्मों में शारीरिक हलन-चलन के कारण भी वायुकायिकों को किंचित् सामान्य से अधिक पीड़ा तो पहुंचती ही है। धर्मोपदेशमूलक हिंसा श्रावक और जनसामान्य के मार्गदर्शक के रूप में तीर्थंकरों ने भी समवसरण में धर्मोपदेश दिये थे। आज हमारा साधुवर्ग तो नगरीय मंदिर या उपाश्रयों में आवास कर वहीं धर्मोपदेश करता है जो अधिकाधिक जनों को लाभकारी या पुण्यकारी होता है। अनेक साधु नगरीय स्थानों से दूरवर्ती स्थानों में, प्राकृतिक छटायुक्त तीर्थ स्थानों में, आवास कर वहीं धर्मोपदेश करते हैं । यह स्पष्ट है कि इन स्थानों में धर्मलाभ हेतु उतने लोग नहीं पहुँच पाते, जितने नगरीय स्थानों पर पहुंचते हैं। इन स्थानों पर पहुंचने के लिये यात्रा करनी पड़ती है, कुछ अधिक समय भी लगता है। हां, धर्मलाभ हेतु धन-त्याग का फल अवश्य मिलता होगा। पर पद यात्रा, द्विचक्री या चतुष्चक्री वाहन-यात्रा तो जमीन पर ही होती है। यह तो अच्छा है कि आजकल सड़कें-कच्ची या पक्की बन गई हैं, नहीं तो यात्रा में विविध कोटि के जीवों को कितनी पीड़ा हमारे पदचापों या चक्र-भ्रमण से होती, इसका अनुमान करना किंचित् कठिन है। फिर भी, यात्राओं में मिट्टी के जीवाणुओं तथा इसकी सतहों पर विद्यमान अनेक उच्चतर कोटि के सूक्ष्म जीवों (कभी-कभी स्थूल भी चींटी आदि) का पीड़न या हनन तो होता ही है। यदि हम यह मानें कि साधु नगर से 10 कि.मी. दूर वर्षायोग में है, और वहां प्रायः 10,000 जन धर्मोपदेश सुनने हेतु जाते हैं, तो यात्रा में ही 35000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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