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हिंसा का समुद्र : अहिंसा की नाव : (387)
के लिये, अधिक अहिंसक मानते हैं। पर ए. के. जैन के समान वैज्ञानिक एवं गणिनीजी के समान साध्वियों को नलकूप जल भी स्वास्थ्य तथा अल्प कीटाणुकता के कारण स्वीकार्य है। नलकूप से जलकर्षण में हिंसा की बात तो वैज्ञानिकतः अजीव (हाइड्रोजन ऑक्सीजन के योगिक) होने से तर्क संगत नहीं लगती क्योंकि अजीव में चैतन्य शून्य होता है। जलीय जीव भी अपनी सूक्ष्मता के कारण प्रायः अप्रतिघाती ही माने जा सकते हैं। (2) वस्त्र : जैसे-जैसे श्रावक की साधुता की प्रतिमायें उच्चतर होती जाती हैं, उनके वस्त्रों की सीमा भी घटती जाती है और वह चादर और लंगोटी तक पहुंचने के बाद शून्य हो जाती है। इस प्रकार, साधुता की ओर बढ़ने वाले श्रावकों की वस्त्र की आवश्यकतायें क्रमशः हीयमान होती हैं एवं सामान्य श्रावकों की तुलना में तो सदैव ही अल्पतर होती हैं। यही नहीं, उनके वेश की आवश्यकतायें श्रावक ही पूरी करते हैं।
श्वेताम्बर साधुओं में भी अनिवार्यतः पांच या सात वस्त्रों की सीमा होती है, जो श्रावक ही पूरा करते हैं। (3) निवास : साधुओं के निवास की आवश्यकता भी क्रमशः अल्पतर होती जाती है और अन्त में वह देवालय, धर्मशाला, उपाश्रय या (प्राचीन काल में) वन-उपत्यकाओं के रूप में हो जाती है। उसे स्वयं अपना निवास बनाने की आवश्यकता ही नहीं है। (4) आजीविका : साधु-दीक्षा के बाद तो उन्हें आजीविका का कोई प्रश्न ही नहीं रहता, उनकी सारी व्यवस्थाओं का दायित्व समाज वहन करता है। इसी कारण, उनका शास्त्रों को छोड़, परिग्रह भी नगण्य होता है।
फलतः साधुओं की हिंसा मुख्यतः निम्न रूपों में दृष्टिगोचर होती है : 1. आहार-मूलक 6-9 x 10° 2. आहार-उपदेश-विहार-मूलक 9X10°x10° (सामान्य) = 9X1019 / किमी
(सामान्यतः एक पद का क्षेत्रफल 9"x4"=36 वर्ग इंच, 253 वर्ग सेमी. होता है।) 3. सामायिकादि-चर्यामूलकः यह सामान्य में परिगणित हो जाती है । 4. धार्मिक कार्यों के लिये अनुमोदन मूलक - 6.93 x 1029 साधु की दिनचर्या
साधु के आचार की हिंसात्मकता या अहिंसात्मकता पर विवेचन करने के पूर्व हमें उसकी दिनचर्या का ज्ञान होना चाहिये। इसका अच्छा विवरण अनगारधर्मामृत में मिलता है। मूलाचार में बताया गया है कि साधु की सामाचारी दो प्रकार की होती है- (1) सामान्य और (2) विशेष या दैनिक-चर्या । सामान्य सामाचारी गुरु एवं शिष्य से सम्बन्धित सदाचार है।
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