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(374) : नंदनवन
इसमें भी आरम्भजा हिंसा प्रमुख है जो "उपरोक्त चारों प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति में तथा शौचादि दैनिक क्रियाओं में भी अनिवार्य है। इनमें न केवल मुख्यतः एकेन्द्रिय जीवों का हिंसन है, अपितु उच्चतर कोटि के जीवों का हिंसन भी, अल्पसंख्या में (विशेषतः कृषि के समान आजीविकाओं में) 'समाहित है। इनमें संकल्पी हिंसा भी पाई जाती है। इन प्रक्रियाओं में पांच प्रकार की हिंसा के रूप समाहित हैं : .1. क्रोधावेशित हिंसा (प्रादोषिकी) 2. दुष्ट-आवेशयुक्त (कायिकी हिंसा) 3. हिंसा के उपकरणों का प्रयोग (आधिकरणकी) 4. पीड़ा उत्पन्न करने वाली (पारितापिकी) 5. प्राण-वियोजनी (प्राणातिपातकी)
इन रूपों में हिंसा के तीन प्रकार समाहित होते हैं : (1) आरम्भी (2) उद्योगी एवं विरोधी और (3) संकल्पी। कहीं-कहीं उद्योगी और विरोधी को पृथक् गणित कर चार रूप भी बताये गये हैं। ___आरम्भजा हिंसा बहुरूपिणी होती है। यही नहीं, गृहस्थों की हिंसा को तीन अन्य रूपों में भी व्यक्त किया जा सकता है : (1) सामान्य हिंसा (या व्यक्तिगत या सामाजिक हिंसा) : यह जीवन संचालन के लिये उपरोक्त तीनों कोटि के कार्यों में होती है। इसमें शोषण, संग्रह आदि भी समाहित हैं। (2) धार्मिक हिंसा : यह आध्यात्मिक स्तर को उन्नत करने वाले कार्यों (आरती, धूप-हवन, पूजा-अभिषेक, विधान-प्रतिष्ठायें, पंचकल्याणक, गजरथ आदि) में जाने-अनजाने होती हैं। इन क्रियाओं में भी चारों प्रकार की हिंसा सम्भावित है। (3) राजनीतिक हिंसा : युद्ध, कलह आदि। हिंसा-विषयक अध्ययन
हिंसा के विषय में जानकारी करने के लिये प्रश्नव्याकरण, सागारधर्मामृत एवं पुरुषार्थसिद्ध्युिपाय के विवरणों को समेकित करने पर छह बिन्दु प्राप्त होते हैं :
(1) हिंसा की परिभाषा : द्रव्य/भाव, प्राणपीड़न/मारण (2) हिंसक
: पापी प्राणी, जीव (प्रमत्त) (3) हिंस्य
: द्रव्य एवं भाव प्राण (4) हिंसा-फल : पाप-बंध, चार गति के दुःख (5) हिंसा के साधन : रागभाव, कषायभाव आदि, हिंसा के उपकरण
और विधियाँ (6) हिंसा के विविध रूपः हितकारी और अहितकारी हिंसा
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