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हिंसा का समुद्र : अहिंसा की नाव : (373)
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7. अपराधी मनुष्य 10 सामान्य मनुष्य 8. साधु
उपाध्याय 9. आचार्य
1010 अरिहन्त 10. सिद्ध
स्तर अनन्त होता है। यह धारणा विभिन्न कोटि के जीवों के भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास या चेतना-स्तर पर आधारित है। इस प्रकार, यह तो स्पष्ट ही है कि एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा में यह मान कम होगा और उच्चतर जीवों की हिंसा में यह मान वर्धमान होगा। वनस्पति विज्ञानी यह बताते हैं कि साधारण अति-सूक्ष्म जीवों में चेतना का स्तर उच्च होता है (बेक्टीरिया, शैवाल आदि)। इनके विपर्यास में, वृक्षों की चेतना का स्तर कन्दमूलों से अधिक हेता है।'
पूर्वोक्त हिंसा-रूपों के मानों से यह भी स्पष्ट है कि कृत की तुलना में कारित और उसकी तुलना में अनुमोदित हिंसा का मान अधिक होता है। आजकल धर्मक्षेत्र में मन-कृत हिंसा (6) कम और उसके दो अन्य रूप, मन-कारित (8) एवं मन–अनुमोदित (10) अधिक प्रयुक्त होते हैं। इनके मानों का अनुपात 6:8:10 होना चाहिये। ज्ञानीजन इस आकलन को और अधिक यथार्थ बना सकते हैं। हिंसा के भेदों के विविध रूप
सागारधर्मामृत में हिंसा के, श्रावक एवं साधुओं को ध्यान में रखकर, दो अन्य रूप भी बताये गये हैं : (1) आरम्भजा हिंसा : गृहस्थी एवं कृषि आदि के समान आजीविका के कार्यों में होने वाली हिंसा, शौच, स्नान, निद्रादि की क्रियायें भी आरम्भजा हैं । शौच. में तो एक-तिहाई बेक्टीरिया होते हैं, अन्य क्रियाओं में भी शरीर-कोशिकाओं का क्षरण एवं पुनर्जनन होता रहता है। मल-मूत्र जब खुले भूतल पर पड़ते हैं, तब न केवल बेक्टीरिया नष्ट होते हैं, अपितु भूतल में विद्यमान बड़े कृमि भी ऊष्मा के कारण हिंसित होते हैं। (2) अनारम्भजा हिंसा : अन्य सामान्य कार्यों में होने वाली हिंसा : (उठना, बैठना, श्वास लेना, विहार आदि)।
गृहस्थ श्रावक अनारम्भजा हिंसा को तो अल्पीकृत कर सकता है, लेकिन वह आरम्भजा हिंसा से विरत नहीं हो सकता। हां, उसे यत्नपूर्वक त्रस और स्थावर हिंसा में सावधानी रखनी चाहिये।
गृहस्थ या सामान्यजन के लिये (1) रोटी (आहार), (2) कपड़ा (वस्त्र) (3) मकान (प्रत्येक कोटि के, देवालय भी इनमें समाहित होते हैं) और (4) आजीविका की आवश्यकता होती है। गृहस्थों के जीवन को ध्यान में रखकर उत्तरवर्ती आचार्यों ने उनकी, तीन प्रकार की ही हिंसा का संकेत किया है।
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