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(384) : नंदनवन
1.5 x 1015 1.2 x 1012
1.35 x 10217
है। इन प्रक्रियाओं से लगता है कि हिंसा तो होती ही है, पर वह कभी-कभी लाभकारी (या पुण्यकारी) होती है। अतः इसे ऋणात्मक हिंसा कहना चाहिये। हिंसा कभी-कभी पापफली के साथ पुण्यफली भी हो सकती है। फलतः हमारी दैनिक हिंसा का मान निम्न होगा : दैनिक क्रियाओं में हिंसा 1. शौच 2. मूत्र-उत्सर्जन में 3. कृषिजन्य हिंसा
5.8 x 10° 4. जल, तेज, वायु पृथ्वीजन्य हिंसा 1.62 x 101 5. मैथुनी हिंसा 6. उद्योगी हिंसा
6 x 1027 7. धार्मिक कार्यों में हिंसा
तुलनात्मक रूप से विचारणीय यह मान 'विश्वगजीवचिते लोके' की धारणा के रूप में कम लग सकता है, पर यह असंख्यात की कोटि में तो आता ही है। इस प्रकार, यह देखते हैं कि हम सांसारिक जीवन में हिंसा के महासमुद्र में रहते हैं और अहिंसा की नाव से उसे पार करना चाहते हैं। यह कथन एक पश्चिमी विचारक के अनुरूप है कि हम अज्ञान के समुद्र को ज्ञान की नौका से पार करना चाहते हैं। हम हिंसा की अमावस के गहन अंधकार को अहिंसा की टार्च से प्रकाशित करना चाहते हैं। यह कितना सम्भव है? यह हमारे व्रत, उपवास, ध्यान आदि से उत्पन्न अहिंसात्मक सक्रियता पर निर्भर करता है। इस परिकलन से यह भी स्पष्ट है कि कन्दमूलों के आहारजन्य हिंसा-मान, हमारे कुल हिंसा-मान से तुलनात्मकतः, कितने अल्प हैं ? ___गृहस्थों के (या साधुओं के) अहिंसार्जक षट्-आवश्यकों के दैनिक परिपालन में प्रायः 3 घंटे (देवपूजाः 1/2 घन्टे, गुरूपास्तिः 1/4 घंटे, स्वाध्याय, 1/4 घंटे, सामायिक-प्रतिक्रमण, प्रायः 12 घंटा (दो बार), आरती आदि 1/4 घंटे) का दैनिक समय काम आना चाहिये। इससे क्या यह अर्थ लिया जा सकता है कि तीन घंटे की अहिंसक या निवृत्तिमार्गी प्रक्रियायें 24 घंटे की हिंसामय क्रियाओं को उदासीन करती हैं ? अर्थात् एक घंटे का धर्म आठ घंटे के अधर्म को उदासीन करता है? यदि धर्म को पुण्य" और अधर्म को पाप कहें, तो क्या यह समीकरण उचित होगा।
1 पुण्य कर्म ~ 8 पाप कर्म इस सम्बन्ध में अन्यत्र विचार किया गया है। ज्ञानीजन इस पर और भी मार्गदर्शन कर सकते हैं। कर्म-सिद्धांत के अनुसार भी, यह अनुपात 1 : 2 और 1 : 7 के बीच आता है।
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