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अध्याय - 10
हिंसा का समुद्र : अहिंसा की नाव
पश्चिम के अध्येताओं ने जब बीसवीं सदी के प्रारम्भ में जैनधर्म का अध्ययन कर उसके निवृत्तिमार्गी रूप का ज्ञान किया, तब उन्होंने यह अनुमान लगाया कि उसके सारे सिद्धान्त निवृत्तिमार्ग के पोषण के लिये, नकारात्मक या जगत् से पलायन के लिये, अकर्मता के प्रवर्तन के लिये विकसित किये गये हैं। फलतः जैनों का मूल सिद्धान्त दुःखमय संसार से निवृत्ति है, अहिंसा आदि सिद्धान्त तो इसके सहायक हैं। इसके विपर्यास में, जैन 'अहिंसा परमो धर्मः' मान कर उसके आधार पर निवृत्तिमार्ग विकसित करतें हैं। इन दोनों मान्यताओं की मीमांसा अपेक्षित है। 'अहिंसा' शब्द हिंसा का नकारात्मक रूप है और प्रीति, स्नेह, करुणा एवं विश्वबंधुत्व का सकारात्मक रूप है। फलतः अहिंसा को समझने के लिये 'हिंसा के विषय में ज्ञान करना होगा। शास्त्रकारों के 'हिंसैव दुर्गार' के कथन के बावजूद भी इसका उल्लेखनीय विस्तार हो रहा है। हिंसा के मूलभूत रूप
सामान्यतः हमें "हिंसा के दो रूप प्राप्त होते हैं : (1) भावात्मक और (2) क्रियात्मक। इन्हें भाव और द्रव्य, निश्चय और व्यवहार या अन्तरंग और बाह्य भी कहते हैं। इनमें मुख्य भावात्मक हिंसा बताई गई है क्योंकि प्रायः हिंसा भावानुसारी होती है। साथ ही, भावविहीन और यतनाचारी व्यवहार हिंसा को दुर्बल कहा गया है। जॉनसन' के अनुसार, प्रारम्भ में हिंसा द्रव्यात्मक ही मानी जाती थी, भावात्मकता तो उसमें उत्तरकाल में जुड़ी है। इससे विभिन्न प्रवृत्तियों की कोटि के वर्णनों में सहायता मिली है।
गुणधर और कुन्दकुन्द ने रागादि क्लेशयुक्त भावों की उत्पत्ति या अशुभ उपयोग को हिंसा (भाव) कहा है, जबकि प्रमाद या अयतना से की जाने वाली स्व-पर-पीड़ादि क्रियायें द्रव्य, व्यवहार या क्रियात्मक हिंसा है। प्रारम्भ में तो हिंसा का अर्थ प्राण-व्यपरोपण माना जाता था, पर अब स्वयं या अन्य को किसी भी प्रकार की मानसिक, वाचिक या कायिक पीड़ा उत्पन्न करना भी इसमें समाहित हुआ है जो अहिंसा व्रत के अतिचारों के अवलोकन से
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