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जैन-विद्याओं में शोध (1983-1993) : एक सर्वेक्षण : (287)
अभिनन्दन ग्रंथों के विज्ञान खण्डों में देखने को मिल सकता है। ये विषय ऐसे हैं जिनका सत्यापन भौतिक या यांत्रिक चक्षुओं से भी हो सकता है। विज्ञान के इतिहास की पुस्तकों में अभी तक जैनों के योगदान का नाम तक नहीं आता। फलतः इस दिशा में किये गये शोध जैनों की प्रतिष्ठा ही बढ़ायेंगे। विदेशों में जैन विद्या शोध
हमने पूर्व सर्वेक्षण में संकेत किया था कि विदेशों में भी जैन विद्या के प्रति रुझान बढ़ रहा है। पिछले विवरणों की तुलना में इस दशक में उपलब्ध सूचनाओं से ज्ञात होता है कि 1973-83 की अपेक्षा इस दशक में विदेशों में जैन विद्या सम्बन्धी शोधकार्य पर्याप्त मात्रा में वर्धमान हुआ है। इसमें निरन्तर वृद्धि भी हो रही है। यद्यपि विदेशी विद्वानों की यह शोध-सूची अधूरी जानकारी के अभाव में अपूर्ण है। फिर भी, इनमें जैनों के समाजशास्त्रीय, साहित्यिक एवं सैद्धांतिक विषयों का पश्चिमी विश्लेषणात्मक दृष्टि से अध्ययन अत्यन्त रोचक है। आजकल विदेशों में जैन विद्या/भारत विद्या अध्ययन के अनेक केन्द्र खुल गये हैं। इनसे पश्चिम में होने वाली जैन विद्या शोधों का यथासम्भव पूर्ण विवरण प्राप्त करते रहने का उपक्रम होना चाहिये। हमनें अपने इस समीक्षण में इन शोधों को भी विषयवार वर्गीकरण में समाहित किया है। तथापि, यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि विदेशी शोधों में श्वेताम्बर साहित्य पर अधिक कार्य हुआ है, दिगम्बर सम्प्रदाय, डॉ. डुडांस के अनुसार, अभी भी उपेक्षणीय स्थिति में है। इसका कारण यह है कि दिगम्बरों के साहित्य के अंग्रेजी अनुवाद नहीं हुये हैं और न ही उन्हें देश के बाहर भेजने में रुचि जगी है। विदेशों में धर्म प्रचार के पुरोधा डॉ. कामता प्रसाद जी बडगोडेसवर्ग (जर्मनी) के पुस्तकालय में जैन साहित्य भेजते रहते थे। जब वह पर्याप्त मात्रा में हुआ, तो अतिरिक्त साहित्य के लिये वहां से एक आलमारी की मांग आई। डॉ. बाबूजी ने अनेक धर्मप्रेमी श्रेष्ठजनों से इस विषय में चर्चा की, पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी। यह 1961 की बात है। इस मनोवृत्ति में अभी कोई विशेष परिवर्तन हुआ है, ऐसा नहीं लगता। विभिन्न संस्थायें साहित्य-संप्रेषण या धर्म संवर्धन के काम में उपेक्षा ही प्रदर्शित करती हैं। विदेशी विद्वानों का यह मत है कि जैन भाषा (प्राकृत) की अज्ञानता उन्हें जैन धर्म की समग्रता के अज्ञान में डुबोये हुये है। इसके लिये आवश्यक है कि हमारा अधिकाधिक साहित्य अंग्रेजी में अनुदित होकर विदेशों में भेजा जाय। शोध प्रबन्धों का प्रकाशन
अनुसंधान एवं शोधकार्य स्वयं में तो महत्त्वपूर्ण हैं ही, पर उनका समुचित रूप में संचारण उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। शोध तो व्यक्ति आधारित
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