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(332) : नंदनवन
प्रसिद्ध हुई है। यह हर्ष की बात है कि इनके सभी मौलिक ग्रन्थ सटिप्पण प्रकाशित हो चुके हैं। इनके टीकाग्रन्थों में (1) समन्त्रभद्र की 'आप्तमीमांसा' पर अष्टशती-800 श्लोक प्रमाण टीका एवं (2) उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र पर राजवार्तिक टीका है। इनमें अकलंक की तर्कशैली, प्रश्नोत्तरशैली और अनेकान्तवाद आधारित निरूपण शैली मनोहारी है। जैन न्याय के तो वे जनक हैं। विचारों के विकास की दृष्टि से ऐसा प्रतीत होता है कि अकलंक ने टीका ग्रन्थ पहले और मौलिक ग्रंथ बाद में लिखे होंगे। उदाहरणार्थ, राजवार्तिक में प्रत्यक्ष के दो भेद नहीं हैं, वे लघीयस्त्रय में हैं। हम यहां केवल राजवार्तिक में वर्णित जीव की परिभाषा पर विचार करेंगे।
राजवार्तिक उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र की टीका है। इसमें गद्यात्मक रूप में सर्वार्थसिद्धि टीका के अधिकांश वाक्यों को स्वतन्त्र रूप में नये रचे वार्तिक के रूप में प्रस्तुत कर उनकी व्याख्या की गयी है। सम्भवतः यह नैयायिक विद्वान उद्योतकर के न्यायवार्तिक का अनुकरण है। तत्त्वार्थसूत्र के अनेक प्रकरणों में आगमिक परम्परा अनुमोदित हुई है, (कर्मबन्ध के पांच हेतु, प्रत्यक्ष के दो भेद, अनुयोगद्वार आदि), अतः अकलंक ने भी अपनी टीका में प्रायः उसका अनुसरण किया है। 'जीव' शब्द
राजवार्तिक में तत्त्वार्थसूत्र के विषयों के अनुसार सात तत्त्वों का भाष्य रूप में तार्किक एवं अनैकान्तिक विवरण है। मनोरंजक बात यह है कि उमास्वामी के मूलसूत्रों में "आत्मा" शब्द का प्रयोग नहीं है, वहां प्रत्येक स्थल पर "जीव" शब्द ही प्रयुक्त हुआ है। यह भी 11 स्थलों पर आया है। इनमें केवल 2-3 स्थानों पर ही जीव की परिभाषा दी गई है। इससे अनेक बातें ध्वनित होती हैं। प्रथम, उमास्वामी के युग तक जैनों में 'आत्मा' शब्द लोकप्रिय नहीं हो पाया होगा। इस शब्द की स्थिति ठीक उसी प्रकार की लगती है जैसे उत्तरवर्ती काल में "अस्तिकाय" के लिये "द्रव्य" शब्द का समाहार हुआ या "पर्याय" के लिये "विशेष" शब्द का प्रचलन हुआ। लगता है कि टीकाकारों के युग में, कम से कम दक्षिण में 'आत्मा' शब्द प्रचलन में था । फलतः जैसे दार्शनिक शब्दावली की समकक्षता के स्थापन की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष को इन्द्रिय (एवं अनिन्द्रिय) के रूप में भी माना गया, परमाणु को व्यवहार रूप में भी माना गया, उसी प्रकार, अन्य दर्शनों के साथ तुलना की दृष्टि से जीव के लिये 'आत्मा' से अभिहित करने की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। परिभाषा के प्रारम्भिक रूप
जैन दर्शन में 'जीव' शब्द जिस घृणा और भर्त्सना से वर्णित किया गया है, उसे देखकर जहां आचार्य की सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति का आभास होता है, वहीं उनकी अतिशयोक्ति अलंकार एवं वीभत्स रस में प्रवीणता भी प्रकट होती है। ये वर्णन आज के मनोवैज्ञानिक प्रचार तन्त्र को भी मात करते हैं।
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