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अध्याय -5
जीव की परिभाषा और अकलंक'
जैन न्याय, प्रमाणवाद एवं अनेकान्तवाद के प्रकाशक भट्ट अकलंक का नाम सुनते ही न्याय और सिद्धान्त के विद्वानों को महान गौरव का अनुभव होता है। यद्यपि सिमोगा जिले में प्राप्त दसवीं सदी के एक शिलालेख में उनका नाम पाया गया है, फिर भी यह दुर्भाग्य की बात है कि उनका प्रामाणिक जीवन-चरित्र उपलब्ध नहीं है और हम प्रभाचन्द्र के कथाकोष, मल्लिषेण-प्रशस्ति एवं राजावली कथा से ही उनके जीवन की कतिपय घटनाओं का विवरण पाते हैं । उनकी प्रशंसा में श्रवणबेलगोला में अनेक अभिलेख हैं । 67 वें अभिलेख में साहसतुंग को उनका संरक्षक बताया गया है। इनका जीवन काल 720-780 ई. माना जाता है। इनके जीवन काल में महाराज दंतिदुर्ग साहसतुंग (725-757 ई.), अकालवर्ष शुभतुंग (757-773 ई), गोविन्द द्वितीय (773-779 ई.) एवं ध्रुव (779-793 ई.) नामक चार राजाओं ने राष्ट्रकूट क्षेत्र (महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और दक्षिण में आंध्र, कर्नाटक) में प्रभावी राज्य किया। इसी काल में राजस्थान-गुजरात में आचार्य हरिभद्र (740-785 ई.), उत्तर प्रदेश के कन्नौज और बंगाल के आचार्य वप्पभट्टि (743-838 ई.) और बदनावर, मध्यप्रदेश में आचार्य जिनसेन प्रथम ने जिन धर्म प्रभावना की एवं साहित्य सृजन किया । हरिभद्र
और जिनसेन तो उनके विषय में जानते थे, पर सम्भवतः वप्पभट्टि इनसे अपरिचित रहे होंगे। अकलंक का युग शास्त्रार्थी युग था। प्रायः आचार्यों का बौद्धों से शास्त्रार्थ होता था। वप्पभट्टि ने छ: महीने तक चले शास्त्रार्थ में बौद्ध विद्वान वर्धनकंजर को हराया था। हरिभद्र ने भी महाराज सर्यपाल की सभा में बौद्धों को हराया। अकलंक ने भी साहसतुंग के समय में बौद्धों को हराया। उन्होंने उड़ीसा में शास्त्रार्थ का डंका बजाया था।
अकलंक के 4 मौलिक और 2 टीका ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। मौलिक ग्रंथों में प्रमाण, नय और निक्षेपों की विशद् चर्चा है। यह ऐसी उच्च स्तरीय एवं तर्कशास्त्रीय चर्चा है कि इसी के कारण "प्रमाणमकलंकस्य" की उक्ति
• यह शोध-पत्र “तुलसी प्रज्ञा" 22.4.1997, लाडनूं में प्रकाशित हुआ है ।
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