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दिगम्बर आगम-तुल्य ग्रन्थों की भाषा : सम्पादन और संशोधन की विवेचना : (329)
उपरोक्त धारणाओं से यह नहीं समझना चाहिए कि शौरसेनी के स्वतन्त्र भाषिक विकास में किसी को कोई आपत्ति है। यह समीक्षण मात्र जनभाषा प्राकृत या अर्धमागधी के साहित्य के शौरसेनी अथवा उसकी ऐतिहासिक बहुरूपता के एक रूपकरण के निराकरण और प्राचीन सही मार्ग के दर्शाने में है। अन्यथा शौरसेनी का स्वतन्त्र विकास हो, उसमें नया साहित्य निर्मित हो, यह तो प्रसन्नता की बात ही होगी । इसके लिए जो विद्वज्जन योगदान कर रहे हैं--वे धन्यवादाह हैं।
जैन संस्कृति की दिगम्बर परम्परा के संरक्षण और परिरक्षण के लिए उसके प्राचीनत्व को स्थायी रखने के लिए दिए गए इन सुझावों को 'अस्मिता' की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए एवं भविष्य में इन्हें अपनाकर और अधिक पुण्यार्जन करना चाहिए । इससे जैन-तन्त्र की सुसंगत श्रेष्ठता की धारणा लोकप्रियता प्राप्त करेगी।
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तिवारी, भोलानाथ; सामान्य भाषा विज्ञान, इलाहाबाद, 1984 5. हीरालाल; शौरसेनी आगम साहित्य की भाषा का मूल्यांकन, कुन्दकुन्द भारती, दिल्ली,
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