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(338) : नंदनवन
विषयों के संवेदन के व्यापक अर्थ में लिया जाने लगा। इस प्रकार " चेतना " भी "चार्वाक" से "अध्यात्मवादी" हो गयी । यह विचार - विकास का एक अच्छा उदाहरण है ।
जैन लक्षणावली ( पेज 274) में चैतन्य के लक्षण के 1-2 संदर्भों की तुलना में उपयोग के 28 संदर्भ दिये गये हैं। सभी के चैतन्य के बाह्य और आभ्यन्तर निमित्तों से होने वाले जीव के परिणामों को उपयोग कहा गया है। इसके अन्तर्गत उपयोग रूप भावेन्द्रिय भी समाहित हो जाती है । अनेक परिभाषाओं में उप+योग (क्रिया) के रूप में व्युत्पत्तिपरक अर्थ भी दिया गया है जिससे इसकी क्रियात्मकता एवं परिणात्मकता व्यक्त होती है। इससे ज्ञान - दर्शनादि का निकटतम संयोजन ही उपयोग होता है। इसी को अकलंक और पूज्यपाद ने " चैतन्यान्यी परिणाम" कहा है। इस प्रकार, उपयोग संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों को माना जाता है। इस परिभाषा से एक तथ्य तो प्रकट होता ही है कि उपयोग भी अंशतः भौतिक है क्योंकि यह संदेह जीव में ही होता है । सिद्ध या शुद्ध आत्मा तो उपयोगातीत प्रतीत होती है। यहां यह भी ध्यान रखना चाहिये कि जीव की परिभाषाओं के रूपों में जितनी विविधता है, उतनी उपयोग के स्वरूपों में नहीं पाई जाती । इससे जीव की परिभाषा की सापेक्ष जटिलता प्रकट होती है ।
परिभाषा का मिश्रित् रूप
जीव की तीसरी कोटि की परिभाषा भौतिक एवं ज्ञानात्मक परिभाषाओं का निश्चित रूप है। यह जीव की व्यावहारिक परिभाषा है। इस परिभाषा में जहां एक ओर जीव को कुन्दकुन्द रूप, रस आदि रहित गुणातीत के रूप में बताते हैं, वहीं वे कर्म सम्बन्ध से उसे मूर्तिक (अनिर्दिष्ट संस्थान) भी बताते हैं । जीव के अनेक नामों में 80 प्रतिशत नाम मूर्तता के प्रतीक हैं और केवल 20 प्रतिशत अमूर्तता के । वे चेतना के 3 रूप करते हैं- ज्ञान, कर्म, और कर्मफल तथा उसके विस्तार में जीव के मूर्तिक और अमूर्तिक रूप को व्यक्त करते हैं। जीव की इस मिश्र परिभाषा में किंचित् विरोध सा लगता है । इसलिये अनेकान्त पर आधारित व्यवहार - निश्चयवाद या द्रव्य - भाववाद का आश्रय लेना स्वाभाविक ही है । मूर्तता सम्बन्धी सारे लक्षण व्यवहारी एवं सामान्यजनों के अनुभव में आते हैं। उनमें से अधिकांश, वैज्ञानिकतः प्रयोग समर्थित भी हैं । कुन्दकुन्द का कथन है कि व्यावहारिक लक्षण अजीव धर्मों के कारण है जिन्हें हमने जीव के ही लक्षण मान लिये हैं । इसलिये व्यवहार भाषा के समान इनके बिना सामान्य जन सूक्ष्म तत्त्व को (शुद्ध आत्मा) कैसे समझेंगा? लेकिन जहां कुन्दकुन्द एक अच्छे वैज्ञानिक की भांति अपने अनुभूत कथनों को सुधारने की बात कहते हैं, वहीं वे व्यवहार को "अभूतार्थ" कहकर उसको अमान्य करने के संकेत देते हैं। वे स्थूल, कर्ममलिन जीव के
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