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नंदनवन
स्वाभाविक ही है। इसे ठीक औषधियों तथा मदिरा आदि से जीव के चैतन्य के अभिभूत होने के समान समझना चाहिये। इस अनादि सम्बन्ध की धारणा से अकलंक जैसे तार्किक ने भी इस मूलभूत प्रश्न का उत्तर नहीं दिया कि शुद्ध आत्मा सर्वप्रथम कैसे जीव बना होगा ? यह प्रश्न आत्मवाद की धारणा पर बड़ा भारी प्रश्नचिह्न लगाता है। इसका उल्लेख जैनी ने भी अपनी पुस्तक में किया है। तत्त्वतः शुद्ध आत्मा तो जन्म-मरण रहित है और उसका , संसारिक रूप ही असंभव है। अतः संसार में जीव या कर्मबद्ध जीव ही हैं। उनका ही वर्णन शास्त्रों में अधिकांश पाया जाता है। उनके नैतिक उत्थान, सुख-संवर्द्धन की दिशा एवं निष्काम कर्मता की विधियां वहां बतायी गई हैं। फलस्वरूप अकलंक ने जीव को अनेक जगह आत्मा का समानार्थी माना है, पर उनका आत्मवाद भी मनोवैज्ञानिक भित्ति पर स्थित है जो हमारे जीववाद में आशावाद के दीप को प्रज्ज्वलित किये रहता है। बीसवीं सदी और अकलंक __ अकलंक आठवीं सदी के विद्वान थे। जीववाद सम्बन्धी धारणाओं पर पिछले तीन सौ वर्षों में पर्याप्त अनुसंधान हए हैं और अनेक तत्कालीन मान्यताएँ पुष्ट हुई हैं तथा कुछ परिवर्द्धन के छोर पर हैं। लेकिन आत्मा सम्बन्धी मान्यताएँ अभी भी विज्ञान के क्षेत्र से बाहर बनी हुई हैं।
अनेक लेखक, जिनमें वैज्ञानिक भी सम्मिलित हैं, आजकल भौतिकी एवं परामनोविज्ञान सम्बन्धी पूर्वोक्ति, दूरदृष्टि, अलौकिक कारणवाद आदि के अन्वेषणों के आधार पर “पदार्थ पर मन के प्रभाव" की चर्चा करते हुये चेतना या संवेदनशीलता का स्वरूप बताकर आत्मवाद को परोक्ष वैज्ञानिक समर्थन देने वाले अनेक उद्धरण प्रस्तुत करते हैं। ये यह भी बताते हैं कि आत्मवाद और इसके साहचर्य सिद्धान्त दु:खमय सांसारिक जीवन में आशावाद, उच्चतर लक्ष्य के लिये यत्न, सर्व जीवसमभाव एवं सहयोग की वृत्ति का मनोवैज्ञानिकतः पल्लवन करते हैं। इसके विपर्यास में वे यह भी बताते हैं कि चेतना और मन समानार्थी से रहे हैं (जिसे आत्मा भी कहा जा सकता है।) पश्चिमी विचारक तो मन और आत्मा को समानार्थी ही मानते रहे हैं। अब मन के अनेक रूप सामने आए हैं-चेतन, अवचेतन, अचेन। चेतना के भी अनेक रूप सामने आए हैं -(1) अन्तरज्ञानात्मक या लोकोत्तर (2) आनुभविक या लौकिक एवं (3) स्व-चेतना। चेतना की परिभाषा क्या है? यह बहुत स्पष्ट तो नहीं है, लेकिन अनेक लोग इसे मस्तिष्क की शरीर-क्रियात्मक मशीन का एक उत्पाद मानते हैं। वे इसे संवेदन और अनुभूति का आधार मानते हैं। टार्ट के समान प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक चेतना को एक विशेष प्रकार की मनोवैज्ञानिक उर्जा मानते हैं जो मन और मस्तिष्क को अपनी क्रियाओं के लिये सक्रिय करती है। यह एक जैविक कम्प्यूटर है जिसकी कार्यक्षमता अनेक दृश्य
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