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नंदनवन
इससे स्पष्ट है कि स्थूल जगत् सशरीरी चेतन जीव से प्रारम्भ होता है जिसमें प्राण होते हैं, आयु होती है। आत्मा की धारणा हमारे विचार-विकास का द्वितीय चरण है । यही कारण है कि हमारे आगम ग्रंथों में जहां जीव का विवरण लगभग 760 बार आया है, वहीं आत्मा का विवरण 460 बार ही आ पाया है । जीव और आत्मा
प्रारम्भ में मनुष्य प्रवृत्तिवादी/व्यवहारवादी रहा होगा। अतः उसने चार्वाक की अनीश्वरवादी तथा अनात्मवादी धारणा बनाई। फिर सर्वजीववाद आया, फिर जीव और अजीववाद आया। पहले अनीश्वरवाद था, बाद में ईश्वरवाद आया। पहले अनात्मवाद था, बाद में आत्मवाद आया। उसके साथ कर्मवाद और पुनर्जन्मवाद आये। प्रवृत्तिवाद के समानान्तर निवृत्तिवाद चला, फिर व्यक्तिवाद एवं यथास्थितिवाद या भक्तिवाद चला। यह स्पष्ट है कि चार्वाक के मत को सभी ने तिरस्कृत किया है क्योंकि वह विशुद्ध व्यवहारवादी एवं प्रत्यक्षवादी था। उसे अनुमान भी पसन्द नहीं था। जीववाद अनात्मवाद का उत्तरवर्ती चरण है।
जीववाद हमारे जीव का प्रथम व्यावहारिक रूप है जिसका अर्थ भौतिक रूप में प्राण, आयु, जन्म, मरण आदि के माध्यम से किया गया। प्रारम्भिक जैन ग्रंथों में प्रमुखता से 'जीव' शब्द आता है। तत्त्वार्थसूत्र काल में 'जीव' शब्द ही लोकप्रिय था। इस ग्रंथ में 'आत्मा' शब्द का कहीं नाम नहीं है। आगामों में 'जीव' और 'आत्मा' शब्द 3:2 के अनुपात में आये हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि 'आत्मा' शब्द भौतिक जगत् के अध्यात्मीकरण के युग में आया है। गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी के समान विद्वानों का विचार है कि भारतीय विचारधारा के विकास में अध्यात्मीकरण का एक युग (सम्भवतः उपनिषद् काल में) आया जब प्रत्येक जीवनतत्त्व आध्यात्मार्थी हो गया। जीव बेचारा आत्मा बन गया। धर्म की परिभाषा भी आध्यात्मिक एवं व्यक्तिवादी हो गई। आगमों में जीव के 23 पर्यायवाची बताये गये हैं जिनमें केवल 4 ऐसे हैं जो आत्मिक गुण को निरूपित करते हैं। (सम्भवतः ये उत्तरकाल में जोड़े गये हों)। अन्य जीव के भौतिक स्वरूप को ही व्यक्त करते हैं। यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि (सशरीरी) 'जीव' शब्द को आजकल 'Soul' शब्द के रूप में अनुदित एवं व्यक्त करते हैं। जब तत्त्वार्थसूत्र की टीकायें बनीं, तब अध्यात्मवाद का साम्राज्य छा गया था और टीकाकारों ने जीव को आत्मा ही बना दिया। अब 'जीव' और 'आत्मा' दो शब्द प्रचलित हैं जिनके निम्न सम्बन्ध हैं : .
जीव = शरीर + आत्मा
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