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अध्याय - 8
आत्मा और पुनर्जन्म
विचारों का विकास
किसी भी तन्त्र की जीवन्तता उसके यथास्थितिवादी स्वरूप से नहीं, अपितु विकासमान स्वरूप से आंकी जाती है। वस्तुतः विचारों, अवधारणाओं एवं प्रवृत्तियों का युगानुकूल विकास तन्त्र की वैज्ञानिकता का प्रतीक है। आत्मा और पुनर्जन्म के सिद्धान्त हमारे धर्म को मनोवैज्ञानिकतः प्रबलित करते हैं, पर भौतिकतः इनकी स्थिति विचार-सरणि को उद्वेलित ही करती है। जैनों के दसवीं सदी तक के ग्रंथों में धर्म की परिभाषा 'हितयं पयाणं' (प्रजा क हित) के उदारवाद से लेकर व्यक्ति/आत्महितं के व्यक्तिवाद के रूप में संकुचित हुई है। इससे धर्म की प्रभाविता कम ही हुई है। अब कुछ विद्वानों ने धर्म को समग्र सुखवर्धन का तन्त्र माना है, दुःखनिवारण की नकारात्मकता का नहीं। डॉ. क्रामवेल क्राफोर्ड ने परोक्ष रूप से यह कहा है कि पार्श्व के युग में जहां धर्म को सामाजिक विकास के अनुकूलन से परिभाषित किया जाता था वहीं महावीर ने इसे व्यक्तिगत स्वायत्तता के कटघरे में डाल दिया। __ धर्म की परिभाषा के समान अन्य अवधारणाओं ने भी विकास और संकुचन पाया है। प्रत्यक्ष के परस्पर विरोधी परिभाषा वाले अतीन्द्रिय और इन्द्रिय भेद, परमाणु के व्यवहार और निश्चय भेद, प्रमाण की परिभाषा का विस्तार, त्रियाम धर्म से पंचयाम धर्म के विस्तार तथा तीन या आठ प्रकार की आत्मायें आदि अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। सामान्य जन स्थूल से सूक्ष्म की ओर प्रवृत्त होता है, व्यवहार से निश्चय की ओर प्रवृत्त होता है, प्रवृत्ति-मार्ग से निवृत्ति-मार्ग की ओर बढ़ता है। इस दृष्टि से यदि हम आत्मवाद के विकास पर ध्यान दें, तो हमें निम्न श्रृंखला प्राप्त होती है : अनात्मवाद र जीववाद प्राकृतिक जीववाद + आत्मवाद + अनीश्वरवाद
भौतिक
पुनर्जन्मवाद कर्मवाद
> मुक्तिवाद
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