________________
जीवों की चैतन्य कोटि : (343)
सा
,
इस विषय में अनेक ज्ञानीजन चैतन्य की कोटि के परिमाणीकरण के प्रयत्न को, अनेक जटिलताओं (कर्म, भाव, क्षयोपशम आदि) के कारण असमीचीन मानते हैं और अनन्त तथा षट्रस्थान-पतित हानिवृद्धि की भूल-भुलैया का संकेत देकर एतद्विषयक अज्ञान को यथास्थिति में ही रखना चाहते हैं। तथापि, मुख्तार और जी. आर. जैन ने संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त को काल्पनिक मान मानकर षट्गुनी हानि-वृद्धि (अगुरु-लघु गुण) का परिकलन करते हुये बताया है कि यदि :
सारणी 1 : प्रज्ञापना के अनुसार विभिन्न जीवों के गुण क्र. जीव ज्ञान दर्शन ज्ञान-पश्यत्ता दर्शन पश्यत्ता 1. एक इन्द्रिय मति/ श्रुत अचक्षु दर्शन श्रुत-अज्ञान जीव
अज्ञान दो इन्द्रिय मति/ श्रुत अचक्षु दर्शन श्रुत-ज्ञान जीव ज्ञान मति/
श्रुत अज्ञान तीन इन्द्रिय मति/ श्रुत अचक्षु दर्शन श्रुत-ज्ञान जीव ज्ञान मति/
श्रुत-अज्ञान श्रुत अज्ञान 4. चार इन्द्रिय मति/ श्रुत अचक्षु दर्शन श्रुत-ज्ञान
चक्षु दर्शन जीव ज्ञान मति/ चक्षु दर्शन श्रुत-अज्ञान
श्रुत अज्ञान ____ पंचेन्द्रिय पहले तीन चक्षु, अचक्षु श्रुत, अवधि चक्षु, अचक्षु पशु
ज्ञान, तीन अवधि दर्शन ज्ञान, श्रुत/ दर्शन अज्ञान
विभंग अज्ञान पंचेन्द्रिय पांच ज्ञान, चार दर्शन दो अज्ञान, चार चक्षु, अचक्षु, मनुष्य तीन अज्ञान
ज्ञान
अवधि दर्शन नारकी बिन्दु 5 के बिन्दु 5 के बिन्दु 5 के बिन्दु 5 के समान समान समान
समान 8. देव बिन्दु 5 के बिन्दु 5 के बिन्दु 5 के
बिन्दु 5 के समान समान समान
समान किसी निश्चित संख्या (1024?) के आधार पर यह प्रक्रिया अपनायें, तो प्रारम्भिक मान 1024 से 16656 तक या लगभग 16 गुना तक परिवर्तित हो सकता है। यदि हम इस निष्कर्ष को चैतन्य कोटि के निर्धारण में उपयोग करें, तो विभिन्न जीवों की कोटि का अनुपात तो वही रहेगा, पर गुण संख्या में बड़ा परिवर्तन होगा। इस दृष्टि से पंचेन्द्रिय मनुष्यों की चैतन्य कोटि गुणों की अपेक्षा 4.32X10 होगी। डॉ. मरडिया (पेज 24) और डॉ. कछारा (व्यक्तिगत पत्राचार) द्वारा 10 का औसत मान सामान्य मनुष्य की चैतन्य कोटि के लिये देना आश्चर्यजनक है। उपरोक्त परिकलन से हमें उनके मत के समर्थन का आधार मिल जाता है।
गुण संख्या में वृद्धि होने के बावजूद भी एकेन्द्रिय जीव और पंचेन्द्रिय जीव की चैतन्य कोटि का अनुपात लगभग 15 आता है। इसका अर्थ यह है कि एक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org