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अध्याय -7
पूण्य और पाप का सम्बन्ध
पुण्य का अर्थ 'पवित्रता उत्पन्न करने वाला साधन या साध्य है। यह व्यक्ति को पवित्र कर सकता है, व्यक्ति-समूह को भी पवित्र कर सकता है। इस शब्द में कुछ 'पराप्राकृतिकता' का भी समाहरण होता है क्योंकि पुनर्जन्मवादियों के लिये यह परलोक सुधारक भी होता है। वस्तुतः, पुण्य पाप का विलोम है:
पुण्य c (1/पाप) (1/हिंसा) हिंसा और उससे सम्बन्धित विविध रूपों से पाप-बन्ध होता है। फलतः यदि हिंसा = 0, तो पुण्य = (1/0) = अनन्त। इसलिये हिंसा के अल्पीकरण या शून्यीकरण से पुण्य होता है। यदि हिंसा अल्पीकृत या शून्य होती है, तो पुण्य का अर्जन क्रमशः वर्धमान होकर अनन्त भी हो सकता है, जो सिद्ध दशा का प्रतीक है। जैनों के पांच पाप हिंसा के ही विविध रूप ही तो हैं, अर्थात्
हिंसा र पाप ___ हम पुण्य और पाप के सम्बन्ध को एक अन्य रूप में भी व्यक्त कर सकते हैं। वस्तुतः पुण्य, पाप का नकारात्मक रूप है, अर्थात्
पुण्य = - पाप
या पुण्य + पाप = 0 सिद्ध अवस्था में, पाप = 0, फलतः, पुण्य = 0. सर्वोच्च विकास की अवस्था में पाप कर्म तो शून्य हो ही जाते हैं, पुण्य कर्म भी सम्पूर्ण कर्मक्षय के कारण शून्य हो जाते हैं। फलतः यदि पाप = 0, तो पुण्य भी शून्य हो जायेगा। यह सिद्धों की सर्वोच्च स्थिति है। इसीलिये निश्चयवादी यह कहते हैं कि उच्चतर आध्यात्मिक स्थिति में पुण्य भी हेय है (क्योंकि पुण्य भी तो कर्म है)। इस आधार पर पुण्य की इकाइयों का मान पाप की इकाइयों के समकक्ष पर ऋणात्मक होगा।
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