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(336) : नंदनवन
इन परिभाषाओं का ऐतिहासिक अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि जीव की प्रारम्भिक परिभाषा प्राणधारण (द्रव्य प्राण) और आयुष्य ग्रहण से सम्बन्धित रही होगी। 'प्राण' शब्द का सामान्य अर्थ श्वासोच्छवास होता है, पर जैनों का अर्थ अन्य तन्त्रों की तुलना में व्यापक है। उसके अन्तर्गत बल, इन्द्रिय, आयु और श्वासोच्छवास समाहित होते हैं। ये सभी पैादगलिक हैं तथा आयु और नामकर्म के रूप हैं। फलतः जीव की यह प्रारम्भिक परिभाषा भौतिक दृष्टि को निरूपित करती है। यह आचारांग सूत्रकृत, स्थानांग, प्रज्ञापना, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, धवला-1 तथा कुन्दकुन्द के प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय में पाई जाती हैं। आजीवक सम्प्रदाय भी जीव को परमाणुमय, वृत्ताकार या अष्टफलकीय आकृति वाला एवं नीले रंग का मानता था। धवला, भगवती एवं पंचास्तिकाय में जीव के 17-23 नाम बताये गये हैं जिनमें अधिकांश जीव के भौतिक स्वरूप को परिलक्षित करते हैं। श्वेताम्बर आगमों में जन्तु, जन्म, शरीरी आदि पद आते हैं जो धवला और कुन्दकुन्द के नामों में नहीं हैं। इससे प्रकट होता है कि श्वेताम्बरों की तुलना में दिगम्बर अधिक अमूर्त आत्मवादी हैं। यह आत्मवाद भौतिकवाद का उत्तरवर्ती रूप लगता है। भाव प्राणों की धारणा से जीव के लक्षणों में कुछ व्यापकता आई है।
उक्त भौतिक परिभाषाओं के अतिरिक्त जीव की भावात्मक या मनोभावात्मक परिभाषा भी है जिसमें कर्म-जन्य 4 भाव-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोशमिक तथा औदयिक एवं कर्म-निरपेक्ष पाँचवां पारिणामिक भाव-कुल 5 भाग समाहित हैं। यद्यपि अनुयोगद्वार में 6 नामों के अन्तर्गत 6 भाव बताए हैं पर वहां उन्हें जीव का असाधारण लक्षण नहीं कहा है। सम्भवतः यह उमास्वामी का योगदान है कि उन्होनें जीव को मनोभावात्मक विशेषताओं से भी लक्षित किया। 'भाव' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं-पर्याय, परिणाम, वर्तमान स्थिति आदि। पर जीव लक्षण के सम्बन्ध में चित् विकार का मनोवैज्ञानिक अर्थ अधिक उपयुक्त लगता है। फलतः जीव वह है जिसमें कर्म एवं कर्मोदय के कारण अनेक प्रकार के मनोभाव भी पाए जाते हैं। यह मनोभावी परिभाषा तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकारों के अतिरिक्त धवला तथा कुन्दकुन्द के कुछ ग्रन्थों में पाई जाती है। "उपयोग जीव का लक्षण है" की प्रश्नावली में यह बताया गया है कि भौतिक लक्षण अनात्मभूत या सहकारी लक्षण है, प्रमुख या आत्मभूत लक्षण नहीं है । इस भौतिक परिभाषा में जीव के भौतिक/भावात्मक तत्त्व (शरीर, योनि, अवगाहन आदि) तथा क्रियाएँ (योग) एवं कर्म-जन्य मनोभाव समाहित होते हैं। फलतः यह परिभाषा मात्र भाव प्राणी पर लागू नहीं होती ।
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