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(334): नंदनवन
अपवादी तो बेचारा 'जीव' माना गया। बहुसंख्यकों की यह अप्रतिष्ठा धर्मज्ञ ही कर सकते थे। यह स्थिति अब तक बनी हुई है। इससे आत्मवाद मौलिक सिद्धान्त हो गया। जैनों में तो आत्मप्रवाद नाम से एक स्वतन्त्र पूर्वागम ही माना जाता है, यद्यपि इसके नाम से प्रकट है कि यह एक विषमवादी प्रकरण रहा है । इसीलिये कबीर को भी अपने समय में यह कहना पड़ा कि मैं बाजार में भाषण दे रहा हॅू पर श्रोतागण नदारद हैं। क्यों ? अब मानवबुद्धि इसका उत्तर दे सकती है । अध्यात्मवादी, मान्यताओं की कोटि व्यावहारिक जगत् की विरोधी दिशा में जाती है। इनके बीच समन्वय कम दिखता है। अतः सामान्य जन 'जीव' बने रहने में साधु बनने की अपेक्षा, अधिक आनन्द मानता है। वह सोचता है कि सांसारिक कष्ट तो हलुए में किशमिस के समान है जो उसके आनन्द को ही बढ़ाते हैं । सत्यभक्त ने बताया है कि संसार में शारीरिक और मानसिक दुःखों की संख्या 108 है और मूलतः 8 प्रकार के सुखों (जीवन, विद्या, प्रेम, विषय, महत्त्वाकांक्षा आदि) के उपभेद 72 हैं। लेकिन संख्या कुछ भी हो परिमाण की दृष्टि से संसार में सुख की मात्रा दुःख से कई गुनी अधिक है। नहीं तो, "जीवणं पियं" क्यों मानता? फलतः संसार की दुःखमयता की धारणा तर्कसंगत विचार चाहती है । यह नकारात्मक प्रवृत्ति, निवृत्ति मार्ग में, निषेधात्मक आचारवाद है । यदि हम संसार को सांत और सुखमय मानें, तो हमारी प्रवृत्ति सकारात्मक एवं सुख के बढ़ाने की होगी। इस मान्यता से जैनों के मूल उद्देश्य का भी विरोध नहीं होगा क्योंकि अनन्त सुख, सान्त सुख का वहिर्वेशन मात्र है। संसारी जीव (कर्म) आत्मा - अनन्त सुख (मोक्ष)
दुःखमयता की धारणा ने हमें यथास्थितिवादी बनाये रखा है। यही कारण है कि हम संसार को सदैव दुःखमय बनाकर रखे हुए हैं और व्यक्तिवादिता का पल्लवन कर रहे हैं। न्यायाचार्य ने ठीक ही कहा है कि हम संसार की 4 गतियों में से मनुष्य और पशु गति को तो प्रत्यक्ष ही देखते हैं। इनकी निन्दा भी करते हैं। पर, फिर भी उन्हीं में पुनः उत्पन्न होना चाहते हैं । यह कितने आश्चर्य की बात है ?
परिभाषा के विविध रूप
जैनाचार्यों ने संसारी जीव की इस सामान्य बुद्धि पर सूक्ष्मता से विचार किया और अनेकान्त - प्रतिष्ठापन युग में द्रव्य-भाव, व्यवहार - निश्चय, अंतर-बाह्य, आत्मभूत - अनात्मभूत आदि की धारणाएँ प्रस्तुत कर बताया कि प्रत्येक वस्तु के अनेक रूप होते हैं। उसका स्वरूप सापेक्ष दृष्टि से ही जाना जा सकता है। सम्पूर्ण स्वरूप तो सर्वज्ञ ही जानता है, पर भाषा की सीमाओं के कारण वह भी कहा नहीं जा सकता। वह अवक्तव्य ही होता है। इसीलिये जीव की परिभाषाएँ अनेक रूप और शब्दावली में पाई जाती है।
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