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आगमिक मान्यताओं में युगानुकूलन . : (309) 6. प्रमाण की परिभाषा तो अनेक आचार्यों ने 'ज्ञानं प्रमाणं' से लेकर
"स्वापूर्वार्थ-व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं' तक परिवर्धित की । कुन्दकुन्द के युग में जहां आचार पंचकथा थी, उसे परिवर्तित कर
उमास्वाति ने आचार-त्रिक किया । 7. लौकिक या पापश्रुत की संख्या सदैव बदलती रही है । 8ए. हमने श्रावक के सात व्यसन एवं आठ मूलगुणों की उत्तरवर्ती धारणा भी
स्वीकृत की । 8. कुन्दकुन्द के युग के सल्लेखनागर्भी बारह व्रत उमास्वाति के युग में
सल्लेखना-बाह्य हो गये। समन्तभद्र और उमास्वाति ने अंमणधर्म को
श्रावकीकृत भी किया। 9. उमास्वाति ने आध्यात्मिक तत्त्वों की 9 व 11 की परम्परा को सप्त तत्त्वी
बनाया एवं बन्ध-मोक्ष तत्त्वों का क्रम अधिक संगत बनाया । 10. उमास्वाति ने कुन्दकुन्द के निश्चय-व्यवहार एवं ग्यारह प्रतिमाओं पर
मौन रखा । ये उत्तरवर्ती विकास प्रतीत होते हैं । 11. अकलंक ने उपयोग की परिभाषा में, ज्ञान दर्शन के अतिरिक्त सुख और
वीर्य को भी समाहित किया । 12. कल्पसूत्र और अन्य ग्रन्थों में एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक के
जीवों में संमूर्च्छन जन्म के साथ गर्भ जन्म को भी मान्यता दी है । 13. हिंसा के द्रव्य-भाव रूप के अतिरिक्त अनेक प्रकार के भेदों का विस्तार
उत्तरवर्ती आचार्यों ने किया और उसे चतुर्विध बनाया । 14. जैनों ने "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" का खण्डन करने के बावजूद भी 'पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य, सावद्यलेशो बहुपुण्यराशी के आधार पर जैन धार्मिक कार्यों-पूजा, अभिषेक, आरती, प्रतिष्ठा, विधान, गजरथ आदि में होने वाली हिंसा को लेशमात्र सावद्य का नाम देकर अनुमोदित किया है। यही नहीं, पुरुषार्थ-सिद्धियुपाय गाथा 79 के टिप्पणी में तो यह भी कहा गया है कि सावद्यलेशी धार्मिक कार्यों में धर्मानुराग तथा लोभकषाय का अल्पीकरण होता है। भौतिक या आध्यात्मिक उद्देश्य के लिये किये जाने वाले वैदिक या जैन-धार्मिक कार्य बिना संकल्प और आर्शीवाद के हों, यह विमर्शनीय विषय बन गया है । संकल्प और सावद्यलेश किंचत्
विरोधी से प्रतीत होते हैं। यह एक विचारणीय विषय है । 15. जैनों ने प्रवाह्यमान (नागहस्ती) एवं अप्रवाह्यमान (आर्य मंक्षु) आदेशों
को भी मान्यता दी है | 16. हमने पंचास्तिकाय की गाथा 111 (अमृतचंद्र) को भी स्वीकार किया
जिसमें एकेन्द्रिय के तीन प्रकारों को स्थावर (पृथ्वी, वनस्पति व जल) व अग्नि एवं वायुकाय को त्रस कहा गया है। यह दिगम्बर तत्त्वार्थसूत्र से सम्मत नहीं है। सम्भवतः गतित्रसत्व यहां अभीप्सित हो, लब्धित्रसत्व नहीं।
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