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दिगम्बर आगम-तुल्य ग्रन्थों की भाषा : सम्पादन और संशोधन की विवेचना : (325)
सम्भव है कि इसे मिश्रित रूप में कहीं-कहीं राजभाषा के रूप में मान्यता मिली होगी जिससे इसके प्राचीन शब्द-रूप अनेक प्राचीन शिलालेखों में पाए जाते हैं। मुझे लगता है कि कुछ लेखकों ने अति उत्साह में इस भाषा की व्यापकता के सम्बन्ध में भ्रान्ति उत्पन्न करने का यत्न किया है। इसका एक रूप आगम-तुल्य ग्रन्थों की भाषा के जैन शौरसेनी के बदले 'शुद्ध-शौरसेनी की भाषिक धारणा के रूप में 1994 से प्रकट हुआ है। इसे विचारों का विकास कहें या जैन धर्म का दर्भाग्य ? यह भयंकर स्थिति है। इस दृष्टि से एक लेखक की नामकरण-सम्बन्धी वैचारिक अनापत्ति अनावश्यक है " 8. दि. आगम-तुल्य ग्रंथों की पवित्रता की धारणा में हानि : किसी भी धर्म तन्त्र की प्रतिष्ठा एवं दीर्घजीविता के लिए उसकी प्राचीनता एवं उसके धर्म-ग्रन्थों की पवित्रता प्रमुख कारक माने जाते हैं। धर्म ग्रन्थों की पवित्रता और प्रामाणिकता के आधार अनेक तन्त्रों में उनकी अपौरुषेयता, ईश्वरादिष्टता या परामानवीयता माना गया है। पर जैन-तन्त्र में इसका आधार स्वानुभूति एवं आत्म-साक्षात्कार माना जाता है। इस साक्षात्कार में अर्थ और शब्द दोनों समाहित होते हैं। यदि आत्म-साक्षात्कार को हमनें प्रामाणिक माना है, तो अर्थ और शब्द रूपों को भी प्रामाणिक मानना अनिवार्य है। इनकी एक परम्परा होती है, उसका संरक्षण दीर्घजीविता का प्रमुख लक्षण है। हम वह परम्परा न मानें, यह एक अलग बात है। पर, परम्परा में परिवर्तन उसकी पवित्रता में व्याघात है। क्या हम अपने आगम-तुल्य ग्रन्थों के रूप में प्रस्फुरित जिनवाणी की जनहितकारणी पवित्र परम्परा को व्याकरणीकरण से आघात नहीं पहुंचा रहे हैं? हमारी दैनन्दिन जिनवाणी की स्तुति का अर्थ ही तब क्या रह जाता है? । 9. दिगम्बर आगम-तुल्य ग्रंथ तीर्थकर वाणी की परम्परा के धनी हैं की मिथ्या धारणा का संपोषण : अपने आगम-तुल्य ग्रंथों की भाषा के शौरसेनीकरण से और शौरसेनी को अर्धमागधी के समानान्तर न मानने से इस मिथ्या धारणा को भी बल मिलता है कि दिगम्बर ग्रंथ तीर्थकर और गणधर की वाणी के रूप में मान्य नहीं किए जा सकते क्योंकि उनकी वाणी तो अर्धमागधी में खिरती रही और शौरसेनी परवर्ती है। इसलिए उनमें प्रामाणिकता की वह डिग्री नहीं है जो अर्धमागधी में रचित ग्रंथों में है। ये ग्रन्थ परवर्ती तो माने ही जाते हैं। इस धारणा से दिगम्बरत्व की जिनकल्पी शाखा स्थविरकल्पियों से उत्तरवर्ती सिद्ध होती है। क्या हमें यह स्वीकार्य है? हम तो जिनकल्पी दिगम्बरत्व को ही मूल जैनधर्म मानते हैं। 10. उचित और ग्रंथकार-अभिप्रेत की धारणा का परिज्ञान : इस सम्पादन को पाठ-संशोधन भी कहा गया है। इसका आधार सम्पादक के व्यक्तिगत
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