________________
(326) :
नंदनवन
औचित्य की धारणा, प्रसंग तथा उनके स्वयं के द्वारा ग्रंथकार के अभिप्रेत (भूतकालीन) का अनुमान लगाया गया है। इससे आदर्श प्रति के आधार की नीति तो सामाप्त होती है, सम्पादक की स्वयं की अनुमेयत्व क्षमता पर भी प्रश्न चिन्ह लगता है क्योंकि इसी तत्त्व पर तो विद्वानों में मतभेद दृष्टिगोचर हुआ है। पारम्परिक वाणी की प्रामाणिकता के आधार के रूप में श्रुतकेवलिभणित्व निर्दोषता, परस्पर अविरोधिता एवं तर्क-संगतता (दृष्टि-इष्ट-अविरोधिता) तथा सर्वजनहितकारिता माने गए हैं। इनमें से कोई भी तत्त्व प्रस्तुत सम्पादन में नहीं है, अन्यथा इतना ऊहापोह, धमकियां और सार्वजनिक उद्घोषणाएँ ही क्यों, होती ? इससे इस प्रक्रिया के आधार ही संदेह के घेरे में आ गए हैं। फलतः यह सारी प्रक्रिया ही एक प्रच्छन्न मनोवृत्ति या महत्त्वाकांक्षा की प्रतीक लगती है। 11 विद्वानों की सम्मतियां : कुन्दकुन्द साहित्य के सम्पादन की प्रक्रिया के चालू होने पर इसकी वैधता पर प्रश्न चिन्ह लगे थे । उस समय अनेक साधुओं, संस्थाओं, विद्वानों एवं श्रावकों ने इन प्रश्न चिन्हों का समर्थन किया था एवं इस प्रक्रिया के विरोध में अपने तर्क-संगत वक्तव्य दिए थे। इनमें से कुछ ने अपने मतों में संशोधन किया है, इसका कारण अनुमेय है। इसे विचार-मंथन की प्रक्रिया का परिणाम भी कहा जा सकता है। इसके बावजूद भी, अधिकांश के मन में यह आवेश तो प्रत्येक अवसर पर दृष्टिगोचर होता ही है कि यह प्रक्रिया ठीक नहीं है। श्रद्धालु तो साधुवेश का आदर कर मौन रहते हैं, पर विद्वान के ऊपर तो संस्कृति-संरक्षण और संवर्धन का दायित्व है। वह कैसे मौन रहे? उसने जीवन्त स्वामी की प्रतिमा की पूज्यता' एवं 'एलाचार्य' प्रकरण का भी विरोध किया। विद्वत् जगत् का मौन 'णमोकारमंत्र के 'अरिहंताणं' पद की एकान्तवादिता पर भी टूटा है, यह वैयाकरणों (चंड, हेमचन्द्र, धवलादि टीकाएँ) के मत के विरोध में भी था। इस मौन भंग का यह प्रभाव पड़ा कि 'अरिहंताणं' के सभी रूपों की प्रामाणिकता मानी गई। हॉ, वरीयता तो व्यक्तिगत तत्त्व है। यही नहीं, एक भारतवर्षीय जैन संस्था ने इस आगम-संरक्षिणी वृत्ति के पुरोधा को सार्वजनिक रूप से सम्मानित भी किया । दिल्ली में भी उसके साहस की अनुमोदना की गई। इस प्रक्रिया के सम्बन्ध में व्यक्तिगत चर्चाओं में जो कुछ श्रवणगोचर होता है, वह भयंकर मानसिक आघात उत्पन्न करता है। 12. सामान्यजन और विद्वज्जन की सहिष्णुता को आघात : कुन्दकुन्द के ग्रंथों के सम्पादन की दृष्टि के पीछे आगम तुल्य ग्रंथों की भाषा का भ्रष्ट एवं अशुद्ध मानना एवं उनके आचार्यों के भाषा-ज्ञान के प्रति संदेह करने की धारणा से जिनवाणी और आचार्यों-दोनों की ही अवमानना रही है। इस धारणा ने सम्पादकमान्य जयसेनाचार्य के शब्द रूपों को भी अमान्य कराया
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org