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(318) : नंदनवन
का स्वरूपनिर्धारण इस समय दिगम्बर साधु और विद्वत् वर्ग में लगभग पिछले पन्द्रह वर्षों से मनोरंजक चर्चा का विषय बना हुआ है। आगम-तुल्य ग्रन्थों की भाषा का स्वरूप और शुद्ध शौरसेनीकरण ___ 1978 के पूर्व डा. ए.एन. उपाध्ये, हीरालाल जैन, फूलचन्द्र शास्त्री, बालचन्द्र शास्त्री, जगदीशचन्द्र जैन और नेमिचन्द्र शास्त्री आदि जैन-आगम-भाषा मर्मज्ञ विद्वानों ने दिगम्बर आगमों या आगम-तुल्य ग्रन्थों के भाषिक अध्ययन से यह निष्कर्ष दिया था कि इनकी भाषा एक जातीय नहीं है, इनमें अन्य जातीय भाषाएँ भी गर्भित हैं । इसलिए इस भाषा को अर्धमागधी कहा गया है जहाँ इस शब्द का अर्थ- 'अर्ध मगधात्मकं अर्ध च सर्वभाषात्मक' माना गया है। इसे 'ऋषिभाषित' एवं 'देवभाषा' भी कहा गया है। यह वेद भाषा के समान प्राचीन और पवित्र है। इसके विपर्यास, में कुछ लोग इस भाषा को शौरसेनी मात्र मानते हैं। यदि इसे अर्धमागधी भी माना जाय, तो यह शौरसेनी की बेटी के समान मूलतः शौरसेनी पर आधारित होगी। इस मान्यता में वर्तमान के प्रवचन-प्रमुख, प्रवचन-परमेष्ठि एवं वाचना-प्रमुख भी प्रेरक हैं। उनके मत का आधार शायद यह हो कि दिगम्बरों में तो जिनवाणी के आधारभूत द्वादशांगी आगम का विस्मृति के गर्भ में चले जाने के कारण लोप हो गया है। उसकी भाषा को शायद वे 'अर्धमागधी' मानने में कोई परेशानी अनुभव न करें । इस विस्मरण और विलोपन के तीन कारण स्पष्ट हैं-(1) आचारांग के समान वर्तमान उपलब्ध आगमों में सचेलमुक्ति की चर्चा (2) अन्य आगमों में स्त्री-मुक्ति की चर्चाएं, तथा कथाएँ तथा (3) अनेक प्रकार की सहज प्रवृत्ति प्रदर्शित करने वाली पर, दिगम्बरों के मत से विकृत रूप प्रदर्शित करने वाली अनेक कथाएँ। उनके अन्य कारण भी हो सकते हैं। अनेक विद्वानों ने इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया है कि स्मृति-हास की प्रक्रिया तो समय के साथ स्वभाविक है, पर जिनकल्पी दिगम्बरों में इसका ह्रास स्थविरकल्पियों की तुलना में काफी तेज हुआ है यह मत वीर-निर्वाण के बाद की 683 वर्ष की दिगम्बर परम्परा के अवलोकन से सत्यापित होता है। दिगम्बरों की इस आगम-विषयक स्मृति-हास की तीव्र-दर और कारणों पर किसी भी विद्वान का मंथन दृष्टिगत नहीं हुआ है। इस कारण दिगम्बर परम्परा पर अनेक आरोप भी लगते रहतें हैं। यह मौन आत्मार्थियों की सहज व्यक्तिवादिता का परिणाम ही माना जायेगा। । वस्तुतः द्वादशांगी ही आगम हैं जो वीर निर्वाण के समय गणधरों के द्वारा सूत्र-ग्रथित होकर स्मृति ग्रथित हुए थे। यह काल महावीर निर्वाण के समकक्ष (527 या 468 ई.पू.) माना जाता है। यदि पार्श्वनाथ के समय की द्वादशांगी को भी माना जाये (जो वीर शासन के समय भी पूर्वो के स्मृत
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