________________
(322) : नंदनवन
1. भाषिक परिवर्तन का अधिकार : जैनधर्म नैतिकता प्रधान धर्म है। इसके कुछ सिद्धान्त होते हैं। सम्पादन, संशोधन और प्रकाशन के भी कुछ सिद्धान्त होते हैं। इसके अनुसार, मूल लेखक से अनुज्ञा अथवा उसके अभाव में उसकी हस्तलिखित प्रति का आधार आवश्यक है। दुर्भाग्य से, ये दोनों ही स्थितियां वर्तमान प्रकरण में नहीं हैं। फलतः भाषिक परिवर्तन की प्रक्रिया मूलतः अनैतिक है। इसमें परिवर्तन का अधिकार सामान्यतः किसी को नहीं हैं। हॉ, बीसवीं सदी में इसके अपवाद देखे जा सकते हैं। इसमें दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् द्वारा प्रकाशित 'महावीर और उनकी आचार्य परम्परा' बिना प्रकाशक की अनुज्ञा तो क्या, उसके बिना जाने ही किसी अन्य संस्था ने प्रकाशित कर दी। अभी 'हिमालय में दिगम्बर मुनि' की स्थिति भी ऐसी ही बनी है।" ऐसा लगता है कि दक्षिण देश उत्तर से किंचित् अधिक अच्छा है, जहाँ "रीयालिटी के पुनः प्रकाशन के लिये ज्वालामालिनी ट्रस्ट ने विधिवत अनुज्ञा ली। जब पुनः प्रकाशन के लिए विधिवत अनुज्ञा अपेक्षित है फिर सम्पादन और संशोधन की तो बात ही क्या? इसमें मानसिक मंगलाचरण के समान मानसिक अनुज्ञा की धारणा ही बचाव कर सकती है। दूसरे, प्राकृत में 'बहुलम्' के आधार पर उत्तरवर्ती वैयाकरणों ने यह माना है कि प्राकृत भाषा (जनभाषा) में एक ही शब्द के अनेक रूप होते हैं। 'कुन्दकुन्द शब्दकोष' से यह बात स्पष्ट रूप से जानी जाती है। इस स्थिति में इन रूपों में एकरूपता लाने की प्रक्रिया मूल लेखक की भावना के प्रतिकूल है। आगम तुल्य ग्रंथों के प्रकरण में तो यह और भी पुण्यक्षयी कार्य है क्योंकि हम उन्हें पवित्र मानते हैं । शब्दों का हेरफेर उन्हें अपवित्र बनाता है। इसके कारण उनके प्रति श्रद्धा में डिगन सम्भावित है। इन सभी दृष्टियों से यह कार्य नैतिकतः अनधिकार चेष्टा है। फलतः आगम-तुल्य ग्रंथों में भौतिक परिवर्तन का अधिकारी कौन है? यह प्रश्न विचारणीय बन गया है। 2. विरूपण का प्रभाव : आगम तुल्यं ग्रंथों के शाब्दिक शौरसेनीकरण से उनके मूलरूप का विरूपण होता है, यह स्पष्ट है। इस विरूपण से : 1. आगम भाषा की प्राचीनता समाप्त होती है। 2. इससे उनमें श्रद्धाभाव का ह्रास होता है। 3. विरूपित ग्रंथों की प्रामाणिकता में संदेह उत्पन्न होता है। 4. अर्थान्तर न्यास की संभावना बढ़ती है। 5. घटकवाद को प्रोत्साहन मिलता है। 6. विरूपण से आगमों की ऐतिहासिकता पुनर्विचारणीय बनती है और
प्राकृत के भाषिक विकास के सूत्रों का लोप होता है। 7. विरूपण आगम-तुल्य ग्रंथों को उत्तरवर्ती काल का सिद्ध करेगा। वैसे
भी अनेक शोधक इन ग्रंथों को पांचवीं-छठी सदी से भी उत्तरवर्ती होने की बात सिद्ध करने के तर्क देने लगे हैं। यह विरूपण इन तर्कों को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org