________________
अध्याय - 4
दिगम्बर आगम-तुल्य ग्रन्थों की भाषा : सम्पादन और संशोधन की विवेचना
ऐसा माना जाता है कि किसी भी धर्म-तन्त्र की विश्वजनीनता, लोकप्रियता एवं अनुकरणीयता के तीन आधार हैं - (1) उच्च कोटि के संस्थापक (2) विश्व-एकता के प्रतिपादक आगम, श्रुत या शास्त्र एवं (3) तन्त्र की सुसंगत श्रेष्ठता की धारणा। ये तीनों आधार एक दूसरे से क्रमशः सम्बन्धित हैं। धर्म-संस्थापक तो अपने समय में धर्म-तन्त्र का विकास करते हैं और बाद में उनके द्वारा कथित या उनके द्वारा लिखित आगमों के आधार पर ही भावी-अनुयायी पीढ़ियां और जन-समुदाय तन्त्र की प्राचीनता, उपयोगिता एवं श्रेष्ठता का मूल्यांकन करते हैं। जैन धर्म की विश्वजनीनता के प्रतिपादन में भी ये तीनों तत्त्व कार्यकारी हैं। उसके संस्थापकों की सर्वज्ञता, वीतरागता एवं निर्दोषता की मान्यता ने उनके वचनों और भाषा में प्रामाणिकता एवं सर्वजनीनता दी है। इनकी निकटतम और किंचित सुदूरवर्ती शिष्यावली द्वारा रचित आगम उनकी ही वाणी माने जाते हैं और उनमें वेदों के समान पवित्रता एवं अपरिवर्तनीयता की धारणा कम से कम महावीर काल से तो प्रचलित है ही । ये आगम न केवल नैतिक सिद्धान्तों की दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण हैं, अपितु ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं। उनसे सिद्धान्तों एवं भाषा के मूलरूपों का पता चलता है । फिर विचार प्रवाह, ज्ञानधारा तो निरन्तर प्रवाहशील होती रहती है। ओशो' के समान कुछ विचारक तथ्यात्मकता को भ्रामक मानकर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की उपेक्षाकर 'धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्' का राग गाते हैं, पर यह कर्णप्रिय तो हो सका है, लोकप्रिय नहीं हो पाया है । तीर्थंकरों की देशना और उसकी भाषा 2,
जैनों की मान्यतानुसार तीर्थंकर की देशना शब्द तरंग रूप होती है जिसे संसार के समस्त प्राणी अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार ग्रहण करते हैं । इसकी व्यंजकता इसकी अक्षरात्मकता को व्यक्त करती है। यह देशना
.3.4.5.30
* यह शोध पत्र 'अनेकांत अंक 49.1.,1996 में प्रकाशित हुआ है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org