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अध्याय - 3
आगमिक. मान्यताओं में युगानुकूलन
आगमों की प्रामाणिकता के आधार -
जैनों में आजकल आगम, शब्दार्थ (उत्तान?) और कुछ प्रचलित परम्पराओं के आत्मविवेचना का युग चल रहा है। आगमों का आधार लेकर नये-नये प्रश्नों को उपस्थित किया जाता है। इन प्रकरणों में आगमों की सत्यता प्रकट करते हुए अपने-अपने मत प्रतिपादित किये जा रहे हैं । प्रायः 'आगम' शब्द से पवित्र ग्रन्थों का बोध होता है। ये पवित्र ग्रंथ प्रत्येक धर्मतंत्र में पाये जाते हैं, पर जैनों में एक नहीं, इनकी एक दीर्घ श्रेणी है । वस्तुतः मूल प्रश्न है- आगम क्या हैं और उनकी प्रमाणिकता कितनी है? क्या वे त्रिकाल-सत्य हैं ? आचार्य महाप्रज्ञ ने बताया है कि यद्यपि आज श्रुत और आगम समानार्थी माने जाते हैं, पर उनमें बहुत अन्तर है। 'श्रुत' शब्द अधिक प्राचीन है, और उसमें अंशतः विसंवादिता और अंशतः अविसंवादिता भी होती है। इसके विपर्यास में, 'आगम' सदा अविसंवादी माना जाता है । इस शब्द के अनेक पर्यायवाची हैं जिनमें श्रुत, शास्त्र, जिनवाणी, जिनवचन या आप्तवचन आदि मुख्य हैं । शास्त्रों के अनुसार, जिनवाणी तो : 1. अठारह दोष रहित सर्वज्ञ एवं वीतराग द्वारा कथित 2. खण्डन रहित 3. प्रत्यक्ष और अनुमान आदि प्रमाणों से अबाधित 4. बाधक प्रमाण रहित 5. युक्ति-शास्त्र-अविरोधी या अविसंवादी होती है । इसकी प्रामाणिकता
के ये ही आधार हैं । आचार्य महाप्रज्ञ का कथन है कि अविसंवादी आगम तो स्वतःप्रमाण होते हैं और अंगबाह्य श्रुत आगम-आधारित होने से परतःप्रमाण होते हैं । दिगम्बर जैनों के इतिहास से हमें पता चलता है कि दिगम्बरों की उत्कट तपो-साधना के बावजूद भी, क्रमिक प्रज्ञा-हानि एवं स्मृतिहानि के कारण, तथा अन्य कारणों से भी, हम वर्तमान जिनवाणी को महावीर निर्वाण के 682 वर्ष (या 156 ई.) के बाद केवल अंशतः ही स्मृति में रख सके । पं. कैलाश चंद्र शास्त्री के अनुसार, गुरु-शिष्य-परम्परा की सुदृढ़ नींव एवं
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