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आगम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन : (301) शास्त्रीय मान्यताओं को ही सत्य प्रमाणित करने का यत्न करते हैं । परन्तु उन्हें तैजस वर्गणा और नभो वर्गणा के आकारों की स्थूलता के अन्तर को मानसिक नहीं बनाना चाहिये । उन्हें गर्भज (सलिंगी) प्रजनन को अलिंगी-सम्मूर्छन प्रजनन के समकक्ष भी नहीं मानना चाहिये । उपसंहार
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि षट्खंडागम, कषायपाहुड़, कुन्दकुन्द, उमास्वाति तथ उत्तरवर्ती चूर्णि-टीकाकारों के ग्रन्थों के सामान्य अन्तःपरीक्षण के कुछ उपरोक्त उदाहरणों से निम्न तथ्य भली भांति स्पष्ट होते हैं : 1. इन ग्रन्थों का निर्माण ईसापूर्व प्रथम सदी से तेरहवीं सदी के बीच हुआ
है । इनके लेखक न सर्वज्ञ थे, न गणधर ही, वे आरातीय थे । 2. इन ग्रन्थों के आगम-तुल्य अतएव प्रामाणिक माने जाने के जो दो
शास्त्रीय आधार हैं, वे इन पर पूर्णतया लागू नहीं होते । 3. आचार्य कुन्दकुन्द का अध्यात्मवादी साहित्य अमृतचन्द्र एवं जयसेन
(10-12 वीं सदी) के पूर्व प्रभावशाली नहीं बन सका । फिर भी, इसकी ऐतिहासिक महत्ता मानी गई । इसी से उन्हें स्वाध्याय के मंगल में गौतम गणधर के बाद स्थान मिला । यह मंगल श्लोक कब प्रचलन में आया, इसका उल्लेख नहीं मिलता, पर इसमें भद्रबाहु जैसे अंग-पूर्वधारियों तक को अनदेखा किया गया है, यह अचरजकारी बात अवश्य है । पर इससे भी अचरज की बात यह है कि अधिकांश उत्तरवर्ती आचार्यों ने उनके बदले उमास्वाति की मान्यताओं को उपयोगी माना। यही कारण है कि जब सोलहवीं सदी में पुनः बनारसीदास ने इसे प्रतिष्ठा दी, तब पंथभेद हुआ। अब बीसवीं सदी में
भी ऐसी ही सम्भावना दिखती है। 4. इन ग्रन्थों में वर्णित अनेक विचार और मान्यतायें उत्तरकाल में
विकसित, संशोधित और परिवर्धित हुई हैं । 5. इनमें वर्णित अनेक आचारपरक विवरणों का भी उत्तरोत्तर विकास और
संशोधन हुआ है। 6. अनेक ग्रन्थों मे स्वयं एवं परस्पर विसंगत वर्णन पाये जाते हैं। इनके
समाधान की "द्वावपि उपदेशी ग्राह्यौ" की पद्धति तर्कसंगत नहीं है। 7. इनके भौतिक जगत् सम्बन्धी विवरणों में वर्तमान की दृष्टि से प्रयोग
प्रमाण-बाधकता प्रतीत होती है। 8. आशाधर के उत्तरवर्ती आचार्यों ने अनेक पूर्ववर्ती आचार्यों की मान्यताओं
को अपनी रुचि के अनुसार अपने ग्रन्थों में स्वीकृत किया है, पापभीरुता, प्रतिभा की कमी तथा राजनीतिक अस्थिरता ने इन्हें स्थिर और रूढ़ मान लिया गया।
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